खेत को संवारने का मौसम आया है। फसल चक्र में खेत की दुनिया को महसूस करने का हक किसान को ही मिलता है। खेत की दुनिया और मां का आँचल सब एक सा लगने लगता है।
धान की कटाई और तैयारी के बाद सूने पड़े खेत को जब अगली फसल के लिए हम तैयार करते हैं, जब माटी को हम ट्रेक्टर के लोहे के हल से तोड़ कर मिट्टी का रंग बदलते देखते हैं तो ऐसा लगता है मानो मां अपने संतान के सिर को सहलाने लगी है, बाल को संवारकर संतान को और भी सुंदर बनाकर लोरी सुनाने लगी है।
महंगाई के दौर में मक्का का बीज भले ही चिढ़ा रहा हो लेकिन इसके बावजूद किसान अपने किसानी कर्म से हाथ नहीं छुड़ाता है, यही किसान का धर्म है। खेत की तैयारी का समाजशास्त्र दरसअल किसान के दुआर और आँगन का अर्थशास्त्र होता है। किसान का संतोष ही किसान का बल है और शायद यही हमारी कमजोरी भी है।
ट्रेक्टर की फटफट आवाज और ट्रेक्टर चालक की आंख, ये दोनों ही खेत को संवारने में अहम भूमिका अदा करती है और यह सब जब हम खेत के आल पे खड़े होकर निहारते हैं तो सबसे अधिक बाबूजी की याद आती है। वे खुद ट्रेक्टर चलाते थे, बांह वाली कोठारी की गंजी पहने बाबूजी की छवि मन के फ्रेम में टंगी है। वे यात्रा पे चले गए, अब तो पांच बरस होने को चला लेकिन अब भी वे खेत-दुआर में चलते-फिरते दिख जाते हैं।
बाबूजी की स्मृति अपने लिए वह ताकत है , जिसके बल पर यह किसान खेत की यात्रा करता है, दुनिया जहान से संवाद करता है। खेत को संवारने का उनका तरीका उनकी डायरी में पढ़ता हूँ तो उनके करीब पहुंच जाता हूं। वे खेत को फसल के नक्शे पे डाल देते थे और फिर सबकुछ प्रकृति के आंचल में बांधकर किताबों और लोक की दुनिया में डूब जाते थे।
आज जब समय मशीन के बल पर बदलने को आतुर है, तब उनकी स्मृति पोखर के शांत जल की तरह लग रही है, जिसमें प्रवाह तो नहीं है लेकिन उसके भीतर जीवन है। शाम से पहले चिड़िया चुनमुन चचचह करते जब पानी के लिए पोखर तक पहुंचती है तो लगता है बाबूजी हैं यहीं , मेरे करीब।
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