पूर्णिया में एक चौराहा है - आरएन साह चौक। बचपन की स्मृति में यहां मिठाई की दुकान ठहरी हुई है लेकिन संग ही एक किताब की दुकान भी। बाबूजी की काले रंग की राजदूत कोर्ट-कचहरी करते हुए अक्सर इस दुकान के आगे रुक जाती थी और वे घंटों यहां किताबों की दुनिया में रमे रहते थे। दुकान वाले काका के साथ लम्बी बातें वे करते थे, यहीं पूर्णिया शहर के लोग भी आ जाते थे और फिर बतकही लम्बी चलती थी। इस बीच बाबूजी अक्सर मुझे बगल के मिठाई के दुकान में बिठा देते और हम रसगुल्ला और सिंघाड़ा दबाते रहते थे।
हिंदी की नई नई किताबें बाबूजी यहीं से खरीदते थे और फिर मोटरसाइकिल के कैरियर में बांध कर गाम लौटते थे। फिर जब किताबों से लगाव अपना भी बढ़ा तो हम भी यहां आने लगे। किताब दुकान वाले काका से अपनी भी नजदीकी बढ़ती गई। लालमुनि जी नाम है उनका। आज भी वे वैसे ही दिखते हैं। किताब, पत्रिकाओं के अलावा हम उनसे बदलते पुर्णिया की कहानी सुनने अक्सर चले जाते हैं।
लालमुनि काका 1973 के आसपास पूर्णिया आते हैं, खगड़िया के डुमरी घाट इलाके से। बाढ़ में सबकुछ गंवाने के बाद वे पूर्णिया आते हैं। किताबों की दुनिया से लगाव होता है तो कुछ किताब, कुछ पत्रिकाओं को लेकर साल 1976 में दुकान की शुरुआत होती है। तब से लेकर आजतक वे किताबों की दुनिया पूर्णिया में सजाते आ रहे हैं। शहर में किताबों से इश्क़ करने वालों के लिए लालमुनि काका का ठिकाना ही असली किताबघर है।
लालमुनि काका से पूछता हूँ कि उन्होंने कब सबसे अधिक किताबें बेची? तो वे कहते हैं कि साल 1982, 84, 85 में किताबें खूब बिकती थी लेकिन अब किताबें कम बिकती है। वे बताते हैं कि उनकी दुकान से सबसे अधिक जो किताब बिकी है, वह है ' गुनाहों का देवता' ।
हिंदी प्रकाशकों के साथ एक छोटे शहर के दुकानदारों के बीच संबंध को लेकर लालमुनि काका बताते हैं कि प्रकाशक के साथ घर परिवार वाला रिश्ता बन जाता है। उन्होंने बताया कि राजकमल प्रकाशन के पटना दफ्तर में एक समय में विजय शर्मा हुआ करते थे, उनसे खूब आत्मीय रिश्ता था, वे पूर्णिया में अधिक से अधिक हिंदी किताबें पहुंचे और दुकान पर दिखे इस पर जोर देते थे।
आज जब सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म पर विश्व पुस्तक दिवस की वजह से किताबें ट्रेंड कर रही है तो वहीं आभासी दुनिया से कोसों दूर लालमुनि काका हमारे हाथ तक किताब और पत्र पत्रिकाओं को पहुंचाने का काम करवा रहे हैं।
#WorldBookDay
1 comment:
Lalmuniji Ka samachar jaan achchha laga. Maine bhi kafi Patra patrikayein unse kharidi hai. Aapne post ke zariye Dilli mein baithe baithe hi unki dukan ke darshan karwa diye. Dhanyavad.
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