जब दिल्ली में था तो गाम के मेले को याद करता था। मेले की पुरानी कहानी बांचता था, और अब जब दिल्ली से दूर अपने गाम-घर में हूं तो 'किताब मेला' और ‘किताबगंज’ की याद आ रही है।
कॉलेज के दिनों में और फिर ख़बरों की नौकरी करते हुए जनवरी में प्रगति मैदान अपना ठिकाना हुआ करता था। दिन भर उस विशाल परिसर में शब्दों के जादूगरों से मिलता था, उन्हें महसूस करता था। हर बार अनुपम मिश्र से मिलता था। बाजार की चकमक दुनिया को अपनी बोली-बानी से निर्मल करने का साहस अनुपम मिश्र को ही था।अब जब वे नहीं हैं तो लगता है कि तालाब में पानी कम हो गया है, आँख का पानी तो कब का सूख गया...
उसी पुस्तक मेले में अपने अंचल के लोग मिल जाते थे तो मन साधो-साधो कह उठता था।अपने अंचल के लेखक चंद्रकिशोर जायसवाल से वहीं पहली दफे मिला था। इस बार उसी मेले में अपने अंचल के लेखक पुष्यमित्र Pushya Mitra की किताब ‘ जब नील का दाग़ मिटा-चम्पारण -1917’ राजकमल प्रकाशन से आई है। पुष्यमित्र भैया के लेखन में माटी की ख़ुश्बू है। मेले जाकर उस किताब को ख़रीदने की इच्छा थी। साथ ही सच्चिदानंद सिंह Sachidanand Singh जी किताब ‘ब्रह्मभोज ‘ को भी मेले में महसूस करना था।
हर साल हमने उस मेले को महसूस किया है। लेकिन इस बार समय के फेर ने इस किसान को प्रगति मैदान से दूर रख दिया है लेकिन आभासी दुनिया में आवाजाही के कारण पुस्तक मेले को दूर से ही सही लेकिन महसूस कर रहा हूं।
इस बार मेले में मैथिली का मचान भी लगा है, जहां दिल्ली वासी मैथिल प्रवासी का जुटान हो रहा है। उसको लेकर मन उत्सुक है। बार-बार फ़ेसबुक पर मैथिली मचान को देखता हूं।
आज गाँव में खेत की दुनिया में जीवन की पगडंडी तलाशते हुए किताबों की उस मेले वाली दुनिया की ख़ूब याद आ रही है। इसी बीच आभासी दुनिया की वजह से राजकमल प्रकाशन की दुनिया में ‘किताबगंज’ का सुख ले रहा हूं, वहाँ कवितापाठ का अन्दाज़ भा रहा है।
तस्वीरों और विडियो ज़रिए पता चल रहा है कि मेले में बाँस का ख़ूबसूरती से इस्तेलाम हुआ है। यह सब देखकर अच्छा लगता है। और चलते-चलते इस किसान की किताब ‘इश्क़ में माटी सोना’ को भी राजकमल प्रकाशन समूह के स्टॉल से ख़रीदिएगा, लेखक को अच्छा लगेगा।
कॉलेज के दिनों में और फिर ख़बरों की नौकरी करते हुए जनवरी में प्रगति मैदान अपना ठिकाना हुआ करता था। दिन भर उस विशाल परिसर में शब्दों के जादूगरों से मिलता था, उन्हें महसूस करता था। हर बार अनुपम मिश्र से मिलता था। बाजार की चकमक दुनिया को अपनी बोली-बानी से निर्मल करने का साहस अनुपम मिश्र को ही था।अब जब वे नहीं हैं तो लगता है कि तालाब में पानी कम हो गया है, आँख का पानी तो कब का सूख गया...
उसी पुस्तक मेले में अपने अंचल के लोग मिल जाते थे तो मन साधो-साधो कह उठता था।अपने अंचल के लेखक चंद्रकिशोर जायसवाल से वहीं पहली दफे मिला था। इस बार उसी मेले में अपने अंचल के लेखक पुष्यमित्र Pushya Mitra की किताब ‘ जब नील का दाग़ मिटा-चम्पारण -1917’ राजकमल प्रकाशन से आई है। पुष्यमित्र भैया के लेखन में माटी की ख़ुश्बू है। मेले जाकर उस किताब को ख़रीदने की इच्छा थी। साथ ही सच्चिदानंद सिंह Sachidanand Singh जी किताब ‘ब्रह्मभोज ‘ को भी मेले में महसूस करना था।
हर साल हमने उस मेले को महसूस किया है। लेकिन इस बार समय के फेर ने इस किसान को प्रगति मैदान से दूर रख दिया है लेकिन आभासी दुनिया में आवाजाही के कारण पुस्तक मेले को दूर से ही सही लेकिन महसूस कर रहा हूं।
इस बार मेले में मैथिली का मचान भी लगा है, जहां दिल्ली वासी मैथिल प्रवासी का जुटान हो रहा है। उसको लेकर मन उत्सुक है। बार-बार फ़ेसबुक पर मैथिली मचान को देखता हूं।
आज गाँव में खेत की दुनिया में जीवन की पगडंडी तलाशते हुए किताबों की उस मेले वाली दुनिया की ख़ूब याद आ रही है। इसी बीच आभासी दुनिया की वजह से राजकमल प्रकाशन की दुनिया में ‘किताबगंज’ का सुख ले रहा हूं, वहाँ कवितापाठ का अन्दाज़ भा रहा है।
तस्वीरों और विडियो ज़रिए पता चल रहा है कि मेले में बाँस का ख़ूबसूरती से इस्तेलाम हुआ है। यह सब देखकर अच्छा लगता है। और चलते-चलते इस किसान की किताब ‘इश्क़ में माटी सोना’ को भी राजकमल प्रकाशन समूह के स्टॉल से ख़रीदिएगा, लेखक को अच्छा लगेगा।
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