समय का फेर परेशान कर रहा है। लाठी लिए कबीर मिलते हैं और कहते हैं , “यह वक़्त भी गुज़र जाएगा..”। इस उतार-चढ़ाव के बीच समय यात्रा भी करवा रहा है। कुछ काम होते हैं, जो विपत्तियों के बीच भी मन को मज़बूत कर पूरा करना होता है। नियति सब काम अपने ढंग से शायद पूरा करवाता है। उन्हीं सब काम के सिलसिले में यात्रा में हूं।
कभी कटिहार तो कभी मधेपुरा-सहरसा। इन सब जगहों ने ग़ज़ब की ताक़त दी है। मधेपुरा में कुछ लोग हैं जो ‘मन-मीत’ बन गए हैं। मन के भीतर साहस का संचार ये लोग कर रहे हैं।
इन्हीं यात्राओं के बीच भेलवा गाम जाना हुआ। मधेपुरा का सुदूर गाँव है भेलवा। मेरे प्रिय राजशेखर का गाम। शब्दों के ज़रिए राज भाय मेरे जीवन में आए और फिर कब जीवन का हिस्सा बन गए, उसका कोई हिसाब-किताब नहीं है।
टूटे मन के साथ राजशेखर के दुआर पर पहुँचा, वो भी पहली बार। सफ़ेद चादर ओढ़े उनका परिसर तन और मन को स्थिर करने का काम किया। दुआर पर हरी दूब स्मृति की चादर माफ़िक़ थी। पुआल का सुंदर सा ढेर देखकर बाबूजी की याद आ गई। आँगन में चूल्हा टूटे मन को जोड़ने का काम किया। बाबूजी और पापा एक साथ याद आने लगे। राजशेखर का लिखा उन्हीं के आँगन में मन में बजने लगा-
“फिर आजा तू ज़मीं पे,
और जा न कहीं,
तू साथ रह जा मेरे,
कितने दफे दिल ने कहा,
दिल की सुनी कितने दफे....”
राजशेखर से उन्हीं के गाम-घर में मिलकर लगा हम खानाबदोश रूह वाले मुहाजिरों के लिए यह एक सराय है। दरअसल हम सब मुहाजिर ही तो हैं।हमारा ठिकाना तो कहीं और है...एक लंबे रास्ते की दूरी तय करने के बाद, जब मन को कोई स्थिर कर देता है तो लगता है कुछ देर रुककर रूह से बात कर लूँ। बीते हुए रास्ते, भूलते हुए चेहरे सबकुछ याद आने लगे।
इस वक़्त जब मन के भीतर कबीर की लाठी बहुत आवाज दे रही है, ऐसे समय में राजशेखर का गाम साहस दे रहा है। मन के भीतर माटी और पानी का संजोग बनता दिखता है। राजशेखर भाय से मिलकर लगा कि समय मन तोड़ता है तो दूसरे ही पल समय का दूसरा भाग साहस भी देता है।
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