Thursday, November 16, 2017

पूर्णिया में शहनाई

‘शहनाई’ से अपनापा है। इसकी धुन से मन के तार जुड़े हैं। ढेर सारी यादें हैं। बचपन की स्मृति में शहनाई है। जैसे जैसे बड़ा हुआ मन के भीतर उस्ताद  बिस्मिल्ला खां आ बसे। शहनाई मतलब उस्ताद। फिर एक दिन अचानक वे चले जाते हैं इस दुनिया से और पीछे छोड़ जाते हैं हमसबके लिए शहनाई ! आज अचानक उस्ताद का मुस्कुराता चेहरा याद आ गया। दरअसल पूर्णिया में उस्ताद की माटी बनारस से दो शहनाई वादक आए  थे- संजीव शंकर और अश्विनी शंकर। स्पीक  मैके का कार्यक्रम था। विद्या विहार (VVIT ) का सुंदर कैम्पस था। युवाओं की भीड़ थी  और उनके बीच शंकर बंधु शहनाई  के सुर बाँध रहे थे। तबले पर संगत दे रहे थे पंडित मिथिलेश झा। मिथिलेश जी पूर्णिया के ही हैं। देश के चोटी के तबलावादकों में उनका नाम है। पंडित जसराज से लेकर उस्ताद अमजद अली खां तक के साथ उन्होंने संगत किया है। उनसे अपनी पहली मुलाक़ात २००६ में दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में हुई थी लेकिन अपने अंचल में उनसे यह पहली मुलाक़ात थी।

युवा शहनाई वादकों ने सचमुच मन मोह लिया। दरअसल शंकर बंधु बिस्मिल्ला खां के अवसान के बाद बनारस घराने की परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं। गूगल से पता चला कि वे शास्त्रीय संगीत के अलावा विदेशी बैंडों के साथ फ्यूजन भी कर चुके हैं।

शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में युवाओं की उपस्थिति मन को मज़बूत करती है। दरअसल शास्त्रीय संगीत के नए लोग तकनीक के जानकार भी हैं. उनका संगीत सीमाओं को लांघकर नए दर्शकों की तलाश कर रहा है क्योंकि उनमें घराने की परंपरा से ऊपर उठने का साहस है. परंपरा के साथ ताजगी की जुगलबंदी करने वाले ये संगीतकार संगीत का नया, अनूठा व्याकरण रच रहे हैं। आज जब पूर्णिया में शंकर बंधु की शहनाई में डुबकी लगा रहा था तो अहसास होने लगा कि यह नए उस्तादों का युग है।

धान की कटनी के बाद शहनाई सुनना सचमुच में कमाल का अनुभव रहा। आज हल्की धूप में युवा शहनाईवादक को सुनते हुए उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र की किताब भी याद आ गई। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताब में एक जगह यतीन्द्र मिश्र बताते हैं कि तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार  उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।..

आज विद्या विहार के कैम्पस में उस्ताद की ही माटी की नई पौध ने शहनाई  के सुर से मन मोह लिया। और चलते चलते नरेश शांडिल्‍य की कविता ‘बिस्‍मिल्‍ला की शहनाई’ सुना जाए-

बिस्मिल्ला की शहनाई है
या वसंत की अंगड़ाई है
इक कमसिन के ठुमके जैसी
रुन-झुन हिलते झुमके जैसी
इक पतंग के तुनके जैसी
नखरीली-सी उनके जैसी
कभी बहकती कभी संभलती
छजती चढती गली उतरती
रस-रस भीगे मस्‍त फाग-सी
धीरे-धीरे पींग बढ़ाती
झुकी हुई इक अमराई है
बिस्मिल्ला की शहनाई है
मधुबन में कान्हा की आहट
भीड़ बीच इक तनहाई है
बिस्मिल्ला की शहनाई है

1 comment:

रश्मि प्रभा... said...

http://bulletinofblog.blogspot.in/2017/12/2017-22.html