हाल ही में मिथिला के कुछ ग्रामीण इलाक़ों में जाना हुआ। मेरे लिए कोसी के इस पार यानि सीमांचल के तरफ़ से उधर जाना हमेशा से सुखद रहा है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि पानी संकट को लेकर इन दिनों हर जगह चर्चा हो रही है।
एक किसान के तौर पर मैं ख़ुद इस संकट से जूझ रहा हूं। ऐसे में जब आँखों के सामने एक से बढ़कर एक पोखर दिख जाए तो आप किसानी मन का अंदाज़ा लगा सकते हैं। पोखर में स्थिर पानी और उसके महार पर खेलते बच्चों को देखकर किसान का मन हरा हो गया। मनिगाछी के समीप एक गाँव ब्रह्मपुरा जाना हुआ था।
मैंने गाँव घुमते हुए एक पोखर की तस्वीर उतार ली और उसे जब फ़ेसबुक और ट्विटर पर डाला तो प्रतिक्रिया में जो टिप्पणियाँ आई तो अंदाज़ा लगा कि गाम-घर को लेकर महानगरों में बसे लोगों के मन में कितना प्रेम है। वैसे कुछ लोगों ने सवाल भी उठा दिया कि क्या सचमुच में पोखर में पानी है या फिर गूगल देवता की तस्वीर है!
ख़ैर, गाँव अभी भी कई चीज़ों को संजोकर रखे हुए है। गाँव ही है जिसके बदौलत डाइनिंग टेबल आबाद है। ऐसे में गाँव की बातें ख़ूब होनी चाहिए। गाँव की उन सभी चीज़ों पर ध्यान रखने की ज़रूरत है, जो हम सभी की ज़रूरतें पूरा कर रही है। साथ ही किसानी समाज कहाँ ग़लती कर रहा है, इस पर भी सवाल उठाए जाने चाहिए।
ऐसे में पग-पग पोखर की बात करने वाले मिथिला जैसे क्षेत्र को नज़दीक से जानने -समझने की आवश्यकता है। केवल माछ-मखान और पान के अलावा जल संरक्षण के लिए भी वहाँ लोग काम कर रहे हैं। यह काम एक से नहीं हो सकता, यह समूहिकता को दर्शाने वाला काम है। मछली और मखान तो व्यावसायिक खेती है। किसानी भाषा में हम इसे नक़दी फ़सल कहते हैं लेकिन जब जल संरक्षण की बात आती है तो हम चुप्पी साध लेते हैं।
पोखर निजी संपत्ति बनकर रह जाती है। लेकिन यक़ीन मानिए यदि हम पानी को लेकर गम्भीर नहीं हुए तो एक अजीब स्थिति इधर भी पैदा हो जाएगी। किसी भी इलाक़े को मराठवाड़ा बनने में देर नहीं लगती है।
बात इसकी नहीं है कि हम किस पर दोष मढ़े । दोष सब पर मढ़े जा चुके हैं । अब हम आपस में एक दूसरे पर दोष मढ़ रहे हैं लेकिन यह भी सत्य है कि खेत को खेत हम किसान ही हैं जो नहीं बने रहने दे रहे हैं। खेत का दोहन हम करते आए हैं। साल में चार फ़सलें तक हम उपजा लेते हैं, धरती मैया को आराम नहीं मिलता है। बोरिंग से अनवरत पानी निकाला जा रहा है। ऐसे में जल स्तर गिरना तो तय है। यह भी सच है कि हम किसान ही हैं जो पोखर को सूखा रहने के लिए विवश कर दिए हैं। हम पानी निकाल तो रहे हैं लेकिन जल-संरक्षण नहीं कर रहे हैं।
हमें अपनी ग़लती स्वीकार कर सामूहिक स्तर पर पानी के लिए पोखर को ज़िन्दा करना होगा। जान लीजिए , जिस दिन हम प्रकृति के अनुसार किसानी करने लगेंगे , दिक़्क़तें कम होनी शुरू हो जाएगी। हाँ, यह अलग बात है कि मौसम की मार के सामने हम विवश हो जाते हैं लेकिन हर बार ऐसा ही होगा यह तो ज़रूरी नहीं है। किसानी करते हुए लड़ना पड़ता है, इसे सहज भाव में स्वीकार कर हमें आगे बढ़ना होगा।
ब्रह्मपुरा गाँव के उस पोखर ने तो मेरे जैसे किसान को यही कहानी सुनाई है। और हाँ, यदि हम सब पोखर को बचाने की ठान लें तो दिक़्क़तें भी देर-सवेर छू-मंतर हो जाएगी। सुंदर गाँव, सुंदर पोखर, पेड़-पौधे किसकी आँखों को पसंद नहीं है। इसे हम ग्राम्य पर्यटन के नज़रिए से भी देख सकते हैं। हमारे गाम में बाहर से लोग आएँगे, ठहरेंगे। इसे भी एक रूप दिया जा सकता है। साफ़ सफ़ाई रखने की ज़रूरत है। हरकुछ के लिए हम सरकार को तो दोषी नहीं ठहरा सकते हैं, हमें भी कुछ करना होगा, बस कुछ अलग करना होगा हम सभी को अपनी माटी के लिए।
(प्रभात ख़बर के कुछ अलग स्तम्भ में प्रकाशित :24 मई2016)
एक किसान के तौर पर मैं ख़ुद इस संकट से जूझ रहा हूं। ऐसे में जब आँखों के सामने एक से बढ़कर एक पोखर दिख जाए तो आप किसानी मन का अंदाज़ा लगा सकते हैं। पोखर में स्थिर पानी और उसके महार पर खेलते बच्चों को देखकर किसान का मन हरा हो गया। मनिगाछी के समीप एक गाँव ब्रह्मपुरा जाना हुआ था।
मैंने गाँव घुमते हुए एक पोखर की तस्वीर उतार ली और उसे जब फ़ेसबुक और ट्विटर पर डाला तो प्रतिक्रिया में जो टिप्पणियाँ आई तो अंदाज़ा लगा कि गाम-घर को लेकर महानगरों में बसे लोगों के मन में कितना प्रेम है। वैसे कुछ लोगों ने सवाल भी उठा दिया कि क्या सचमुच में पोखर में पानी है या फिर गूगल देवता की तस्वीर है!
ख़ैर, गाँव अभी भी कई चीज़ों को संजोकर रखे हुए है। गाँव ही है जिसके बदौलत डाइनिंग टेबल आबाद है। ऐसे में गाँव की बातें ख़ूब होनी चाहिए। गाँव की उन सभी चीज़ों पर ध्यान रखने की ज़रूरत है, जो हम सभी की ज़रूरतें पूरा कर रही है। साथ ही किसानी समाज कहाँ ग़लती कर रहा है, इस पर भी सवाल उठाए जाने चाहिए।
ऐसे में पग-पग पोखर की बात करने वाले मिथिला जैसे क्षेत्र को नज़दीक से जानने -समझने की आवश्यकता है। केवल माछ-मखान और पान के अलावा जल संरक्षण के लिए भी वहाँ लोग काम कर रहे हैं। यह काम एक से नहीं हो सकता, यह समूहिकता को दर्शाने वाला काम है। मछली और मखान तो व्यावसायिक खेती है। किसानी भाषा में हम इसे नक़दी फ़सल कहते हैं लेकिन जब जल संरक्षण की बात आती है तो हम चुप्पी साध लेते हैं।
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6 comments:
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