Tuesday, April 26, 2016

पछिया हवा और पुराना पोखर

पिछले एक हफ़्ते से गाँव में पछिया हवा का ज़ोर है। लोगबाग सहमे हैं क्योंकि आगज़नी की घटना सबसे अधिक इसी हवा के ज़ोर में होती है। उधर, पछिया हवा का प्रभाव गाँव के पुराने पोखर में भी देखने को मिल रहा है। एक तरफ़ सूरज का प्रचंड ताप तो दूसरी ओर तेज़ हवा।   ऐसे मौसम में जल स्तर नीचे गिर जाता है   और पोखर सूख जाता है।

पछिया हवा की वजह से पानी के बाद अब पोखर का कीचड़ भी सूखने के कगार पर है। कीचड़ों पर दूब उग आए हैं। प्यासी -भूखी वनमुर्गी  झुंड बनाकर दूब के आसपास मँडराती रहती है। प्रचंड धूप में भी इन चिड़ियों को देखकर लगता है कि हम कितने आलसी हो गए हैं। हम सब धूप से डरने लगे हैं और धूप में निकलते भी हैं तो 'सनस्क्रीन क्रीम' लगाकर, जबकि यह तो प्रकृति के व्याकरण का हिस्सा है, इसे स्वीकार करना चाहिए, संघर्ष करना चाहिए।

ख़ैर, दूसरी ओर पोखर के पूरब के खेत में पटवन के बाद जमा पानी में कीड़ों को ढूँढने के लिए बगूले आए हुए हैं। दो दिनों से लगातार मक्का के खेतों में पटवन हो रहा है। दरअसल नहर में पानी आता नहीं है तो ऐसे में किसानी समाज पम्पसेट पर निर्भर हो चुका है।

खेत में पटवन के कारण आए बगूले पोखर में भी ताका-झाँकी कर लेते हैं। पोखर के आसपास जंगली बतकों के बच्चे 'पैक-पैक' करती हुई चक्कर मार रही है। सिल्ली चिड़ियाँ तो पोखर में जहाँ कुछ पानी बचा है उसमें डुबकी लगा रही है। जब पूरे देश में पानी को लेकर बातचीत हो रही है, बहस हो रही है , उस वक़्त किसानी कर रहे लोग खेतों में संघर्ष कर फ़सल की रक्षा कर रहे  हैं साथ ही जीव-जंतुओं को पानी भी मुहैया करा रहे हैं। कभी इस पर भी बात होनी चाहिए।

उधर, पोखर के कीचर में कोका के फूल आए हैं। गरमी में इस फूल की सुंदरता देखने वाली होती है। नीले और उजले रंग में डूबे इस फूल को देखकर मन में ठंडी बयार चलने लगती है। देखिए न  इस तपती गरमी में पोखर को देखकर मुझे कोसी की उपधारा 'कारी-कोसी' की याद आ रही है। बचपन में गाम की सलेमपुरवाली काकी कारी कोसी के बारे कहानी सुनाती थी। कहती थी कि डायन -जोगिन के लिए लोग सब कारी कोसी के पास जाते हैं। लेकिन हमें तो चाँदनी रात में कारी कोसी की निर्मल धारा में अंचल की ढेर सारी कहानियाँ दिखती थी।

बंगाली मल्लाहों के गीत सुनने के लिए कारी कोसी पर बने लोहे के पुल पर खड़ा हो जाता था। बंगाल से हर साल मल्लाह यहाँ डेरा बसाते थे और भाँति-भाँति की मछलियाँ फँसाकर बाज़ार ले जाते थे। इस पुल से ढेर सारी यादें जुड़ी हैं। यहाँ से दूर दूर तक परती ज़मीन दिखती है, बीच-बीच में गरमा धान के खेत भी हैं।

क़रीब दस साल पहले तक बंगाली मल्लाह कारी-कोसी के तट को हर साल बसाते थे, धार की जमीन में धान की खेती करते हुए सबको हरा कर देते थे। ये सभी मेहनत से नदी-नालों-पोखरों में जान फूँक देते थे। यह समुदाय ख़ुद में सफलता की कहानी है, जिसने मेहनत कर कोसी के कछार को सोना उपजाने वाली माटी बनाया और फिर हमें सौंपकर निकल गए, मुसाफ़िर की तरह। मल्लाह समुदाय के लोगों ने इलाक़े को अलग तरह की खेती और मछली पालन के अलावा बांग्ला गीतों का भी दीवाना बनाया। सुबह और शाम में कारी कोसी के किनारे बसी बस्तियों के क़रीब से गुज़रते हुए आज भी बांग्ला गीतों की आवाज सुनने को मिल जाती है।

गाँव का बिशनदेव उन बंगाली मछुआरों की बस्ती में ख़ूब जाया करता था और जब लौटकर आता तो  उसके हाथ में चार-पाँच देशी काली मछली और कुछ सफ़ेद मछलियाँ होती थी। यह सब अंगना में बने चूल्हे के पास रखकर वह कहता- 'सब भालो, दुनिया भालो, आमि-तुमि सब भालो, दिव्य भोजन माछेर झोल.....'

बिशनदेव की इस तरह की बातों को सुनकर गाम में सबने उसका नामकरण 'पगला बंगाली' कर दिया था। काली मछलियों को लेकर वह ढ़ेर सारी कहानियाँ सुनाता था। हम सब उसकी बातों में डूबकर पूर्णिया से पश्चिम बंगाल के मालदा ज़िला पहुँच जाते थे।

अब बिशनदेव नहीं है लेकिन आज पछिया हवा के बीच पुराने पोखर के नज़दीक से गुज़रते हुए कारी-कोसी की यादें ताजा हो गयी।

2 comments:

Anonymous said...

कारी कोसी और मल्लाह. जीवंत विवरण.

sameer said...

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