Sunday, October 04, 2015

एक किसान की चुनावी डायरी- 7

कबीर की एक वाणी है- अनुभव गावै सो गीता। बिहार में चुनावी बयार के वक्त जब मैं घुम-घुमकर लोगों से बात करता हूं तो लगता है कि सचमुच कबीर की वाणी हमें राह दिखाती है। समाचार चैनलों पर चुनावी गणित सुलझाते विशेषज्ञों से इतर चौक चौराहों पर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनके पास ग्राउंड पॉलिटिक्स के ढेर सारे अनुभव हैं। ये वे लोग हैं जो खेती-बाड़ी करते हैं, दुकानदारी करते हैं...लेकिन उनके पास विशेषज्ञ का प्रमाण पत्र
नहीं है!

सिमराही बाजार में चाय दुकान चलाने वाले शिवेसर कहते हैं “बिहार की राजनीति जात से चलती है। यहां मुखिया का चुनाव भी जाति के ढेर सारे समीकरणों के आधार पर लड़ा जाता है। ये तो विधायक का चुनाव है। चुनाव से पहले जो भी आप छापते हैं या टीवी वाले दिखाते हैं उसका असर शहरी लोगों पर होता होगा, हम सब पर नहीं होता है।“

शिवेसर की बातों पर गौर करने पर पता चलता है कि कैसे ग्राउंड पर लोग चुनावी गणित को समझ रहे हैं। पत्रकारिता में ग्राउंड जीरो का मतलब शिवेसर जैसे लोग बेहतर तरीके से बता सकते हैं। उसी चाय दुकान पर अखबारों को हाथ में लिए लोग टिकट, चुनाव से अधिक सड़क –बिजली की बात करते मिले। यह मुझे अच्छा लगा।

कंप्यूटर साइंस का एक छात्र अभिनव बताते हैं कि चुनाव से पहले कुछ भी बताना टेढ़ी खीर है। फिर भी कयासों के जरिए राजनीति को पत्रकारिता में बड़े दिलचस्प तरीके से परोसा जा रहा है। पटसन की खरीद बिक्री करने वाले रमेश साह कहते हैं- “नीतीश आएं या कमल खिले, इस बार का बिहार चुनाव राष्ट्रीय स्तर की अहमियत रखता है। हर कोई बिहार की बात कर रहा है। हम सब इसी से खुश हैं।”

कालाबलुआ से पहले इंदरनगर इलाके में हमारी मुलाकात एक बुजुर्ग किसान श्रीचंद से होती है। आलू के लिए खेत तैयार कर रहे श्रीचंद चाचा ने बताया कि बिहार की मौजूदा राजनीति को समझने के लिए पहले लालू यादव को समझना होगा। उनके मुताबिक लालू बिहारी राजनीति के ‘साहेब’ हैं। इस तरह की बातें  अक्सर टेलीविचन चैनलों पर विशेषज्ञों की मुख से य फिर अखबारों में विशेष कॉलम में पढ़ने को मिलता था लेकिन एक खेतिहर की जुबान में लालू यादव की मेकिंग सुनना मुझे रास आया।

श्रीचंद आगे बताते हैं कि लालू कैसे एक जमाने में बिहार में पिछड़ों नायक बन गए थे। उनकी बोली बाली कैसे लोगों को खींच लेती थी। हम जिसे सेंस ऑफ ह्यूमर कहते हैं दरअसल श्रीचंद उसी की बात कह रहे थे। जब हमने पूछा कि अब उनके बारे में आप क्या कहेंगे, इस सवाल पर उन्होंने कहा- इस चुनाव में उनकी राजनीतिक विरासत दांव पर लगी है। बेटे के चक्कर में कहीं लालू सबकुछ गवां न दें।

इस चुनाव में यदि लालू की ‘ब्रांड पॉलिटिक्स’ की बात कर रहा है तो जरुर राजद के लिए यह अच्छी खबर है। दूसरी ओर शनिवार को पूर्णिया में रैली को संबोधित करते हुए भाजपा अध्य क्ष अमित शाह ने लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार पर हमला जारी रखा। शाह ने कहा 'अगर राज्य में लालू और नीतीश आएंगे तो जंगलराज-2 आएगा, लेकिन भाजपा और उसके सहयोगी राज्य में जंगलराज-2 नहीं आने देंगे।' उन्होंने प्रदेश में दो तिहाई बहुमत से एनडीए की सरकार बनने का विश्वास भी जताया।

राजनीति यही है। ग्राउंड पर लोगों की बातें सुनिए और फिर किसी चुनावी सभा में नेताओं की बातों पर नजर घुमाइए। तस्वीरें साफ हो जाएंगी। वैसे नीतीश कुमार को लेकर भी लोग खूब चर्चा कर रहे हैं। अररिया जिले के हासा कमालपुर चौक पर एक किराना दुकानदार परमानंद साह ने बताया कि आज नीतीश भले ही लालू
के साथ चले गए हों लेकिन उनकी पहचान लालू विरोध से ही बनी है। उन्होंने बताया कि लालू दौर के बाद बिहार में क्या बदलाव आया और राज्य में कानून व्यवस्था कैसे बेहतर हुई, यह नीतीश कुमार के अलावा कौन बता सकता है।

इस तरह के बयानों को सुनकर लगता है कि जमीन पर आकर हम यदि लोगों की बातों को सुनेंगे तो एक बेहतर रिपोतार्ज बन सकता है, जिसमें बिहार की अलग-अलग छवि को हम संकलित कर सकते हैं। कभी कभी मुझे लगता है कि राजनीति खुद में एक ‘शानदार रिपोर्ताज और किस्सागोई है’।

इन दिनों लगातार घुमते हुए यह अहसास हो चुका है कि बिहार चुनाव में सबसे बड़ा फैक्टर यदि कुछ है तो वह है जाति। गूगल करने से पता चला कि यहां 14 फीसदी यादव हैं और 15 फीसदी दलित वोटर हैं, इन दोनों को लेकर ही राजनीति हो रही है। किशनगंज के दिबाकर बनर्जी कहते हैं कि बिहार की राजनीति को
समझना है तो जातीय समीकरणों की पड़ताल जरूरी है।

चुनाव बतकही करते हुए लगता है कि हमें 1990 में राज्य में कांग्रेस के पतन के बाद की राजनीति को भी समझना होगा। राजनीति हमें अक्सर कई चीजें समझाती हैं। बाद बांकी जो है सो तो हइए है । 

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