Friday, May 08, 2015

जब शहर हमारा सोता है...

हल्की हल्की हवा चल रही है। आसमान में बादलों के संग तारे टिमटिमा रहे हैं। टेबल पर खालिद हुसैनी की किताब द काइट रनर है लेकिन मन अचानक चनका-पूर्णिया से दिल्ली पहुँच गया है। हवा के झोंके की तरह मन दिल्ली की गलियों में गोता खाने लगा।

मुखर्जी नगर और गांधी विहार से मन के तार अचानक जुड़ गए हैं। बत्रा सिनेमा से कुछ कदम आगे आईसीआईसीआई बैंक का एटीएम और उसके सामने मैंगो-बनाना सैक वाले सरदार जी का स्टॉल याद आ रहा है, पता नहीं ये दोनों अब वहां हैं या नहीं और हैं तो किस रूप में।

रोशनी में डूबे मुखर्जीनगर में हम शाम ढलते ही एक घंटे के लिए आते थे। इधर –उधर कभी कभार घुमते थे। दरअसल हम आते थे गर्मी में सरदार जी के स्टाल पर जूस पीने और उसके सामने चारपाई पर बिछी पत्र पत्रिकाओं में कुछ देर के लिए खोने के लिए।

 20 रुपये में एक ग्लास जूस पीते थे और फिर मुफ्त में हफ्ते की हर पत्रिका पर नजर घुमा लेते। उस वक्त नौकरी नहीं थी, पढ़ने के लिए पैसे मिलते थे। इसलिए खर्च को लेकर बेहद सतर्क रहना पड़ता था। कथादेश पत्रिका से मेरा पहला इनकाउंटर उसी चारपाई वाले बुक स्टॉल पर हुआ था।

आज पता नहीं एक साथ इतना कुछ क्यों याद आ रहा है ? सचमुच मन बड़ा चंचल होता है। मुखर्जीनगर का वो चावला रेस्तरां याद आ  रहा है जहां बिहार के होस्टल वाली जिंदगी से निकलने के बाद पहली दफे चाइनीज व्यंजनों का मजा उठाया था। उस वक्त लगा कि यह रेस्तरां नहीं बल्कि पांच सितारा होटल है। हम पहली बार किसी रेस्तरां में खाए थे।

चावला रेस्तरां के बगल से एक गली आगे निकलती थी। कहते थे कि इस गली में इंडियन सिविल सर्विसेज का कारखाना है, मतलब कोंचिग सेंटर । उस गली में खूब पढ़ने वाले लोगों का आना जाना हमेशा लगा रहता था।  ऐसे लोगों को हम सब 'बाबा' कहते थे उस वक्त। पता नहीं अब क्या कहा जाता है :)

मैं इस वक्त खुद को 2002 यानि की 13 साल पीछे ले जाकर खड़ा कर दिया है। फेसबुक का वह काल नहीं था..वो तो बस मौखिक काल था..हम आमने सामने बैठकर चैट करते थे तब :)

मैं याद करता हूं तो स्मृति में  मुखर्जी नगर और गांधी विहार के बीच एक पुलिया आ जाती है। बदबूदार पुलिया। लेकिन उस बदबू में भी अपना मन रम जाता था। पूरे दिल्ली में उस वक्त केवल मेरे लिए, एक वही जगह थी जहां पहुंचकर मैं सहज महसूस करता था।

दरअसल उस पुलिया पर मुझे गाम के कोसी प्रोजेक्ट नहर का आभास होता था। भीतर का गाँव वहां एक झटके में बाहर निकल पड़ता और मैं मन ही मन खुश हो जाता था।

इस वक्त मुझे 81 नंबर की बस याद आ रही है, फटफट आवाज करते शेयर वाले ऑटो, रंगीन रिक्शे...ये सब आँखों के सामने तैर रहे हैं इस वक्त। मैं अब इंदिरा विहार की तरफ पहुँच जाता हूँ वहां एक बस स्टॉप था, जिसका नाम था- मुखर्जी नगर मोड़। मैं उस मोड़ पर 912 नंबर की बस का इंतजार करता था, सत्यवती कालेज जाने के लिए।

बसों के नंबर से उस वक्त हम दिल्ली को जीते थे। तब मेट्रो नहीं आया था। धुआं उड़ाती बसों का आशियाना था दिल्ली। मेरा वैसे तो अंक गणित कमजोर रहा है लेकिन बस के अंकों में कभी हम मात नहीं खाए :)

कॉलेज की पढ़ाई के दौरान मुखर्जी नगर के आसपास का इलाका हमारा गांव हो गया था, जिसके मोहल्ले, गलियां, पार्क .. ये सब मेरे लिए गाम के टोले की तरह हो चले थे। सब जगह अपने इलाके के लोग मिल जाते। इसलिए उस शहर ने कभी भी मेरे भीतर के गांव को दबाने की कोशिश नहीं की क्योंकि हम बाहर-बाहर शहर जीते थे और भीतर-भीतर गांव को बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हुए अंचल की सांस्कृतिक स्मृति को मन की पोथी में संजोते हुए शहर को जी रहे थे...

1 comment:

Sumer Singh Rathore said...

वाह, शानदार।