पिछले एक महीने से
खेत-पथार से लगभग दूर हूं। बाबूजी की तबियत खराब होने की वजह से अस्पताल और डाक्टर
के संग जीवन को देख रहा हूं। ऐसे में दोपहर के खाली वक्त में फेसबुक से यारी और बढ़ गई है।
कभी कभी लगता है कि फेसबुक ने मेरे ‘मैं’ का विस्तार किया है। जैसे कबीर कहते हैं न-बिन धरती एक मंडल दीसे/बिन सरोवर जूँ पानी रे/गगन मंडलू में होए उजियाला/बोल गुरु-मुख बानी हो जी… ठीक वही बात इंटरनेट के विभिन्न
सोशल नेटवर्किंग चैनल मेरे लिए कर रहे हैं।
फेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स मेरे लिए कबीर रच रहे हैं, गुलजार बो रहे हैं और तो और, कुछ रेणु के बीज भी बो रहे हैं। ऐसे में मुझे यह दुनिया भी किसानी लगती है, मैं काश्तकार बन जाता हूं, जो मेरा मूल है।
फेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स मेरे लिए कबीर रच रहे हैं, गुलजार बो रहे हैं और तो और, कुछ रेणु के बीज भी बो रहे हैं। ऐसे में मुझे यह दुनिया भी किसानी लगती है, मैं काश्तकार बन जाता हूं, जो मेरा मूल है।
हमने कभी भी फेसबुक को आभासी
नहीं माना, और न ही ख्वाब। दरअसल हम इसमें भी एक शहर बसाते हैं, एक मोहल्ला तैयार करते हैं। ऐसे लोगों से और करीब आते हैं, जिससे मन की बातें थोक के भाव में कर सकें, जिन्हें
ड्राइंगरुम में बुलाकर अच्छी चाय पिला सकें.... सब अपने हैं यहां, कोई नहीं है पराया....।
जिले के पड़ोसी और संबंधी यहां और भी करीबी बन गए। कोई जब यह पूछता है कि आपने क्या कमाया तो मैं झटके से कह देता हूं- दोस्त कमाए हैं। आगे वाला सोचता है कि फेंक रहा है लेकिन एन वक्त पर अंदर का दोस्त साधो-साधो कह रहा होता है।
इन दिनों रूहानी अहसास होने लगा है, आत्मालाप की श्रेणी में यह पोस्ट लिखते वक्त मैं इस अहसास को लिख नहीं कर पा रहा हूं क्योंकि ऐसे वक्त पे मन बावरा हो जाता है। आप आवारा भी कह सकते हैं।
अक्सर फेसबुक पर कई लोग टकराते हैं। ऐसे अवसरों पर लगता है, मानो यह कोई स्टेज हो, जहां हर दिन हर कोई सज-धज के आते हैं और अपने रोल को निभाकर निकल जाते हैं, अपने घर की ओर। और मैं, इन सबमें अपना रुप खोजने जुट जाता हूं। तभी पर्दे के पीछे से रवींद्र नाथ टैगोर के शब्द गूंजने लगते हैं- विश्वरुपेर खेलाघरे/ कतई गेलेम खेले/ आपरूप के देखे गेलेम/दुटि नयन मेले../जाबार दिने.....( In the theater of this world, I played many games and assumed many roles, while doing so, "I" "saw" "me", with my own eyes...)
जाते-जाते गुलजार को पढ़ लीजिए-
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते/ जब कोइ तागा टूट गया या खत्म हुआ/फिर से बांध के/ और सिरा कोई जोड़ के उसमे/आगे बुनने लगते हो…..
जिले के पड़ोसी और संबंधी यहां और भी करीबी बन गए। कोई जब यह पूछता है कि आपने क्या कमाया तो मैं झटके से कह देता हूं- दोस्त कमाए हैं। आगे वाला सोचता है कि फेंक रहा है लेकिन एन वक्त पर अंदर का दोस्त साधो-साधो कह रहा होता है।
इन दिनों रूहानी अहसास होने लगा है, आत्मालाप की श्रेणी में यह पोस्ट लिखते वक्त मैं इस अहसास को लिख नहीं कर पा रहा हूं क्योंकि ऐसे वक्त पे मन बावरा हो जाता है। आप आवारा भी कह सकते हैं।
अक्सर फेसबुक पर कई लोग टकराते हैं। ऐसे अवसरों पर लगता है, मानो यह कोई स्टेज हो, जहां हर दिन हर कोई सज-धज के आते हैं और अपने रोल को निभाकर निकल जाते हैं, अपने घर की ओर। और मैं, इन सबमें अपना रुप खोजने जुट जाता हूं। तभी पर्दे के पीछे से रवींद्र नाथ टैगोर के शब्द गूंजने लगते हैं- विश्वरुपेर खेलाघरे/ कतई गेलेम खेले/ आपरूप के देखे गेलेम/दुटि नयन मेले../जाबार दिने.....( In the theater of this world, I played many games and assumed many roles, while doing so, "I" "saw" "me", with my own eyes...)
जाते-जाते गुलजार को पढ़ लीजिए-
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते/ जब कोइ तागा टूट गया या खत्म हुआ/फिर से बांध के/ और सिरा कोई जोड़ के उसमे/आगे बुनने लगते हो…..
3 comments:
हर माध्यम के अपने मायने हैं। । शुभकामनायें
बेहतरीन। जितना आपको पढ़ता हूं आपसे मिलने की अच्छा बढ़ती जाती है।
यह दुनिया भी इस दुनिया जैसी ही होती जाती है , जैसे इसे जानते हैं !
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