Saturday, February 22, 2014

बनते किसान की छोटी सी कहानी

आवरन देवे पटुआ, पेट भरन देवे धान, पूर्णिया के बसैय्या रहे चदरवा तान... फणीश्वर नाथ रेणु ने जब यह लिखा था तब पूर्णिया जिले के किसान इन्हीं दोनों (पटसन और धान) फसलों पर आश्रित थे और खूब खुश भी थे। लेकिन धीरे-धीरे किसानी का प्रारुप बदलने लगा। किसानी के इसी बदलते रंग-ढ़ंग के बीच हमने नौकरीपेशा जीवन को अलविदा कहते हुए किसानी को अपनाने की कोशिश की है। अपनी माटी से जुड़कर माटी के लिए ही  कुछ  करने के लिए हम दिल्ली-कानपुर होते हुए पहुंचे बिहार के पूर्णिया जिला। किसानी करते हुए अभी साल ही पूर हुए हैं लेकिन इतना विश्वास जरुर जगा है खेत-खलिहान का जीवन सबसे अनोखा होता है।  

पूर्णिया
जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूरी पर स्थित एक गांव है चनका यहां हमने किसानी के पारंपरिक रुप को बदलने की कोशिश की है। जिन खेतों में पहले केवल धान-गेंहू-मक्का आदि उपजाया जाता था वहां हम अब प्लाइवुड के लिए लकड़ी उपजाने लगे हैं। इसके साथ ही मिट्टी की उपजाऊ गुणवत्ता बनी रहे इसके लिए हम पारंपरिक खेती भी जारी रखे हैं।

दरअसल उत्तर भारत में किसान और किसानी के प्रति लोगों की धारणा अभी भी पुरानी ही है। कोई यह नहीं चाहता है कि उनके बाल-बच्चे किसानी को करियर बनाए जबकि यदि आपके पास पूंजी और जमीन के संग धैर्य है तो किसानी में काफी फायदा है। हमने इसी फायदे का गणित जोड़कर लकड़ी खेती की शुरुआत की। हमने खेतों में कदंब के पौधे बड़े स्तर पर लगाए। दो पौधों के बीच की दूरी हमने बीस फीट रखी है। इस दूरी की वजह से  हम उसी खेत में पारंपरिक खेती भी कर रहे हैं। मसलन धान के मौसम में धान और मक्का गेंहू के मौसम में मक्का-गेंहू भी उपजा रहे हैं।

शुरुआत में हमने केवल कदंब को इसीलिए चुना है क्योंकि कदंब केवल खेती के लिए ही नहीं बल्कि पर्यावरण के लिए भी महत्वपूर्ण है। जंगलों को फिर से हरा भरा करने, मिट्टी को उपजाऊ बनाने और सड़कों की शोभा बढ़ाने में कदंब महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह तेज़ी से बढ़ता है और से आठ वर्षों में अपने पूरे आकार में जाता है। इसलिए जल्दी ही बहुत-सी जगह को हरा भरा कर देता है। विशालकाय होने के कारण यह ढ़ेर-सी पत्तियाँ झाड़ता है जो ज़मीन के साथ मिलकर उसे उपजाऊ बनाती हैं।

 हमने खेती के आर्थिक महत्व को देखते हुए कदंब को प्रमुखता दी है। यह पौधा 10 से 12 साल के भीतर ही प्लाइवुड फैक्ट्री के लिए तैयार हो जाता है।  कदंब की कहानी ठीक वैसे ही है जैसे पहले पंजाब में बड़े स्तर पर पॉपलर की खेती हुआ करती थी। हालांकि अब वहां भी कदंब की खेती होने लगी है। गांव में इसे वन खेती का नाम दिया गया है। इसका एक फायदा यह भी है कि आपको जलावन समय-समय पर मिलता रहेगा। मसलन जब पेड़ की छटांई होगी किसान को जलावन मिलेगा।

कदंब के साथ-साथ हम सागवान के पौधे भी लगा रहे हैं। दरअसल किसानों में अब सागवान के पौधे लगाने का चलन बढ़ने लगा है। हम यहां किसानों को अधिक से अधिक वृक्षारोपण करने के लिए जागरूक कर हे  है, जिससे कि पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ किसानों को आर्थिक लाभ भी हो। सागवान का एक पौधा 80 रुपए या 100 रुपए के आसपास पड़ता है और 12-13 वर्ष में यह तैयार हो जाता है। तब प्रति पौधा किसानों को 25 हजार तक की आमदनी हो जाती है। वहीं खेतों के साथ-साथ भी इसे लगाया जा सकता है, क्योंकि इससे मृदा संरक्षण होता है और यह खेत या फसल को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता। इसके पत्ते खेतों में गिरने के बाद गल कर जैविक खाद का कार्य करते हैं। इसकी देखरेख में भी खर्चा बहुत कम है।
वन खेती इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि देश में ऐसे 1,73,000 गांव हैं, जिनमें वन भूमि उपलब्ध है।

एक किसान के तौर पर मेरा मानना है कि वन खेती को सरकार ब़ढावा दे। यह
आर्थिक कारणों से काफी  लोकप्रिय हो रहा है। सागवान या कदंब का एक पौधा बैंक एफडी से ज्यादा रिर्टन दे रहा है।

इसकी कीमतें पिछले चार सालों में दोगुनी हो गई है। कदंब का एक पेड़ 3000 से 15000 रुपये तक बिकता है। वहीं इसका जलावन 600 रुपये क्विंटल तक बिकता है। यह किसान को सवार्धिक फायदा देने वाला पेड़ है। यदि आप केवल जलावन के लिए ही इसकी खेती करना चाहते हैं तो ज्यादा इंतजार भी नहीं करना होगा, केवल एक साल में जलावन के लिए कदंब तैयार हो जाता है।

इन सबके बीच 12 महीने पहले का चकमक जीवन भी याद आता है। सुबह नौ से शाम छह तक एसी कमरे में अपने सहकर्मियों के संग काटे कुल छह साल याद आते हैं। चाय-कॉफी के संग दुनिया जहान की बातें हम करते थे। लेकिन किसानी करते जो अनुभव हो रहा है वह उन बतकही से कोसों दूर है।

4 comments:

Monika Kumar said...
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Anonymous said...

बहुत मज़ा आया पढ़कर

खेत खलिहान का जीवन सबसे अनोखा होता है, इसके अलावा कि मार्किस्ट अर्थों में यहाँ काम करने वाले को अजनबियत नहीं होती कि वह पता नहीं किस अज्ञात मशीन का निगूना पुर्जा है बल्कि जाने अनजाने प्रकृति की ऐसी कुर्बत में हमें सरवाईवल के कई रंग नज़र आते हैं जो आत्म आश्वस्त करते हुए खुशी देते है

मोनिका कुमार

Unknown said...

बडिया अौर informative अनुभव।मुझे हमेशा एेसे practical अनुभव की तलाशरहती है जिससे मै अपने अाप को relate कर पाउॅं।अार्थिक पहलु के सिवाय जो satisfaction अापके लेख मे दिख रहा है वो अनुकरणीय है।अाप अागे भी एेसा ही लिखते रहें

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लगा यह पोस्ट बांचकर!