Saturday, July 06, 2013

बांस-बारिश और ये किसानी- 2

जमीन से अजीब किस्म का लगाव होने लगा है। उसके गणित को समझने लगा हूं। खाता-खेसरा-रकवा जैसे शब्दों से अपनापा बढ़ गया है। ऐसे अवसरों पर कबीर की वाणी याद आती है तो लगता माया के फेर में फंस गया हूं।  माया मोहनी, जैसी मीठी खांड। खैर, एक बनते किसान की जो डायरी शुरु की थी आज हम उसी को आगे ब़ढ़ा रहे हैं।

हमारी अगली तैयारी जमीन के कुछ बड़े टुकड़ों पर बांस का साम्राज्य स्थापित करवाना है J दरअसल बाजार में जिस तेजी से बांस की मांग बढ़ी है उस हिसाब से अंचल में बांस के झुरमुट मौजूद नहीं हैं।

बारिश के इस मौसम में बंसबट्टी (बांस) में बांस के नए-नए उपले उग आए हैं। बांस के नवातुर गाछ के रंग मुझे बचपन से ही बहुत रहस्मय लगते हैं। आपको ऐसा हरापन कहीं नसीब नहीं होगा। साथ ही बंसबट्टी की माटी की गंध, आह जादू रे...।

कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं बंसबट्टी को लेकर। बचपन से सुनता आया हूं कि पूर्णिमा की रात कोई आती है
, उस बंसबट्टी में। सलेमपुर वाली काकी (श्यामलपुर से ब्याह कर आई एक महिला) हमें जब यह कहानी सुनाती थी तो डर से अधिक रोमांच हुआ करता था।
छह साल पहले सलेमपुर वाली काकी गुजर गईं। वह खूब बीड़ी पीती थी। हमारे एक चैन स्मोकर राजा चचा जब कामत पर आते थे, तो उनकी अधजली फेकी सिगरेट को सलेमपुर वाली बीछ कर पीती थी,  और कहती थी- एहन मजा ककरो में नै छै,  आई हम कुमार साहेब वला सिगलेट पीने छी..।“  

देखिए न यादें कैसी अजीब चीज होती है, बांस के बहाने सलेमपुर वाली काकी याद आ गई। खैर, अब किसानी की बात। बारिश के इस मौसम में हमने अपने उस खेत को बांस के लिए तैयार किया है जिसमें कल तक धान, गेंहू या मक्का उपजाया जाता था। बांस के बीट (जड़-मूल) को हमने तैयार कर लिया है और जल्द ही उसे खेत में लगा देंगे। तीन साल तक बांस को छोड़ देना है फिर हमारे हिस्से एक नकदी फसल आ जाएगी।

मुझे याद आ रहा है एक तपती दोपहरी, जब  बांस के झुरमुटों (जिसे यहां बंसबट्टी कहते हैं) में हमने कदम रखा था। ऐसा लगा मानो किसी वातानुकूलित (एसी) कमरे में हमने पांव रख लिया हो। ऐसी ताजगी कहां नसीब होती है। हमने उसी पल सोच लिया कि अंचल में बांस को और जगह दी जाएगी। देखिए न ये सब लिखते हुए मुझे करची कलम की भी याद आने लगी है। करची कलम की उत्पत्ति भी बांस से ही हुई है। पतला वाला बांस। यह भी बांस की एक प्रजाति है। 

बांस के पास ही बेंत की झाड़ी लगाई जाती है। बेंत की झाड़ी भी कम मायावी नहीं होती है। सूरज के ताप में जब हरे बेंत झुकते हैं तो ऐसा लगता मानो वो कुछ छुपा रही हो, ठीक उसी वक्त धूप से बचने खरगोश उसमें पनाह लेते हैं। हरे पर उजले का छाप बड़ा प्यारा लगता है। किसानी की यह कथा जारी रहेगी, हम अंचल में रहते हुए अपनी बात जारी रखेंगे। 

जारी....
पुनश्च:-  यह एक बनते किसान की डायरी है

3 comments:

P.N. Subramanian said...

बहुत अच्छा लगा पढ़कर. हमारे घर पर भी था. पिछले साल कटवाना पड़ा क्योंकि चारों तरफ दीवार उठा दी थी. पहले कटीली बाड थी.

Rahul Singh said...

खेतों में रुपये उगने और कारखानों में अनाज बनने का जमाना.

सुरिन्दर सिंह said...

बहुत खूब...