Monday, April 02, 2012

यह गोबर-गेउठा, टट्टी काल है!

किसी महीने की पहली तारीख की अपनी तारीफ होती है। नौकरीपेशा लोग इसके महामात्य से भली भांति परिचित होंगे। आज अप्रैल की पहली तारीख की बात हो रही है लेकिन गंध के बहाने। दरअसल भाष्कर डॉट कॉम ने अप्रैल की पहली ताऱीख पर मजाक की सीमा को तोड़ते-फोड़ते हुए 'कुछ एक बेहूदगी' दिखाई थी। बेहूदगी के स्नैपशॉट को फेसबुक के पन्ने पर चस्पा करने के बाद बतकही की लंबी माला बनती चली गई। 'पत्रकारिता के गोबर गेउठा काल' की एक-लाइनी व्याख्या पाइप लाइन से निकलने लगी।

इसी बीच सुशील झा ने कहा- "आपत्ति है स्टेटस में..इसे गोबर गेउठा काल न कहें..गोबर पवित्र है भारतीय समाज में BULL_SHIT या COW_SHIT नहीं...अगर आपका अभिप्राय पत्रकारिता के टट्टी काल से है..।"

सुशील भाई की टिप्पणी में मौजूद 'पत्रकारिता के टट्टी काल' ने  कथावाचक को गंध के पीछे छिपे मर्म से मिलवा दिया। अब इसका असर देखिए, पत्रकारिता के गंध से उबते हुए कथावाचक मिनटों में अंचल पहुंच गया। नहर के आसपास मैदानों में चारा का आनंद उठाते सैकड़ों मवेशी उसकी आंखों के सामने आ गए। जी हां, वही मवेशियां जिनके गोबर से खेत की महिमा बढ़ती है। फसल की पैदावर बढ़ती है। बैलों के गले में बंधी घंटियों की आवाज कानों में देसी संगीत देने लगी। लेकिन उसी पल गांव से कुछ दूर पर मौजूद शहर के डेयरी फार्म की भी याद आने लगी।

बात यह है कि शहर के फार्म की गाय-भैंस, गांव की मवेशियों की तरह आजाद नहीं होती हैं। उनके पेट को हमेशा भर देने के लिए बोरे में भरे दाने मुहैया कराए जाते हैं। इन दानों को खाने के बाद दूध की मात्रा बढ़ जाती है। कुछ 'गौ-पालक' तो दूध बढाने के लिए गाय को जबरन इंजेक्शन भी ठोंकते हैं। खैर, ऐसे दानों का आहार लेने के बाद गाय के गोबर के रंग-गंध के बारे में आप अंदाजा लगा सकते हैं। कथावाचक का मन चारागाह से सीधे अन्न भंडार पर टिक जाता है।

सुशील झा की टिप्पणी गोबर के रंग-गंध पर सोचने को मजबूर कर देती है और लिखना पड़ता है- "गाय का गोबर अब मनुख के टट्टी जैसा गंध करता है। जर्सी गाय को जो चारा खिलाया जाता है उससे टट्टी ही निकलता..।"

अब बात पते की यह है कि गोबर पर लंबी बात करने के आवश्यकता आ पड़ी है। गोबर मौजू बन चुका है। गोबर जरुरत बन चुका है।  गजल, शायरी, कविता की दुनिया से बाहर निकलकर अब गोबर पर बात होनी चाहिए। गंभीर बात, न कि 'गोबरमय' बात।

पत्रकारिता के इस गोबर-गेउठा काल में गोबर के चरित्र पर भेपर-लाइट मारने की जरुरत है। किसानी कर रहे लोगों के गुहाली (गौशाला का देहाती रुप) में गोबर कर रहे गाय-बैल-भैंस की स्थिति पर नजर दौड़ाने की जरुरत है। वहीं राज्य सरकारों के डेयरी योजनाओं से उपजे मवेशियों के लिए चारा बनाने वाले लोगों की मानसिक स्थिति पर विचार करना होगा।

लेकिन  इन सबके संग पाठकों के लिए अखबार छाप रहे मीडिया कंपनियों में कार्यरत 'सर्व-गुण-संपन्नों' की 'शाब्दिक कलाकारी' पर भी विचार करना होगा। हर कुछ के लिए 'मजबूरी' नामक भ्रामक शब्द का दामन थाम रहे लोगों के मन में जमा गोबर को हटाना जरुरी है। वैसे पत्रकारिता के इस गोबर काल में गेउठा भी कमजोर बनने लगा है, हमें 'ग्लूकोज' की जरुरत है..ताकि 'नमक का कर्ज' चुकाने के तर्ज पर 'ग्लूकोज का कर्ज' भी चुकाने की बात हो सके।

(इति-गोबर वार्ता ..गंध के लिए माफी नहीं मांगा जाएगा, क्योंकि गंध ही सत्य है। )

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