Tuesday, March 27, 2012

एक ख्वाब ले और एक ख्वाब दे...


तस्वीर- गूगल से उधार
इधर कुछ दिनों से यात्राओं से संबंध बनता जा रहा है। कथावाचक को यात्राओं के जरिए खुद से मुलाकात होती है और वह आत्मालाप करने लगता है। कविता की तरह, कथा की तरह।

इसी दरम्यां उसे इतिहास की कक्षाएं याद आ जाती है। कथावाचक को सातवीं में इतिहास पढ़ाने वाले मास्टर साब कामेश्वर पासवान की याद आती है।


मन के पन्ने पर ढेर सारे बिंब उभर आते हैं।
मास्टर साब कक्षा की शुरुआत में ही यात्रा की अहमियत पर दो मिनट बोलते थे, फिर एक ही झटके में वे हमें ऐसे नाटककार की तरह नजर आने लगते थे, जो हर लाइन में कथा को विस्तार देता हो।

इन दिनों अपने शहर
, अपने गांव में वक्त गुजारने के अनुभव में कथावाचक को यात्रा और इतिहास दोनों से अपनापा होता जा रहा है और मास्टर साब की बातें मन में दौड़ लगाती दिखने लगती है। 

आज यात्रा के बहाने लिखते हुए भीतर की नदी का जलस्तर बढ़ चला है। मानो कोसी के ग्रामीण इलाकों में कोसी प्रोजेक्ट के सूखे नहर में प्रोजेक्ट इंजीनियर ने अचानक पानी छोड़ दिया हो। कथावाचक के भीतर ऐसे ही भाव पनपने लगे हैं।


सामाजिक संबधों के पुल पर आवाजाही बढ़ती दिख रही है। रात के अंधेरे में झिंगुर की घनन-घनन आवाज सीधे अंचल की ओर ले जा रही है। एक साथ कई चीजें मन के अंचल में दौड़ लगा रही है। इस दौड़-भाग में तेज हवा के झोंके में मानो कुछ पेड़ गिर गए हैं।

कथावाचक रास्ते पर गिरे पेड़ की डालियों को हटा रहा है। कि तभी उसे फिल्म
दिल्ली 6’ का वह फ़कीर याद आता है, जिसके हाथ में हर वक्त एक आईना होता है..अपना चेहरा देखने के लिए, लोगों को चेहरा दिखाने के लिए..। कथावाचक ने वैसा ही एक आईना अपने हाथ में रख लिया है।

आईने के संग झंझावातों में चलते हुए कथावाचक को पंगडंडी पर कबीर लाठी थामे मुस्कुराते दिख जाते हैं तो मन बोलने लगता है-
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से, उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या?” कबीर वाणी के संग ही कथावाचक की कथा में ख्वाब का आलाप शुरु हो जाता है। वह गुलजार से उधार लेकर लिखने लगता है- "एक ख्वाब ले, एक ख्वाब दे..."

कथावाचक को दुनियादारी के संग दिल्ली के किसी सिनेमा हॉल में देखी फिल्म गुलाल की भी याद आ रही है। वह बार-बार बुदबुदाता है और फिर तेज आवाज में बोलने लगता है- " जीवन की राहों में आना या जाना बता के नहीं होता है
, जाते कहीं है मगर जानते न कि आना वहीं होता है.."

कथावाचक गुलाल के गीतों में डूबते हुए अपने आईने में अपनी छवि देखता है और मुस्कुराते हुए कहता है-खोने की जिद में ये क्यूं भूलते हो कि पाना भी होता है....

1 comment:

@Rohwit said...

I think I know when you decided to come up with this post. You did tweet these lines some days back.

Excellent as usual.