देखिए फिर एक नया साल आ गया और हम-आप इसके साथ कदम ताल करने लगे। शायद यही है जिंदगी, जहां हम उम्मीद वाली धूप में चहकने की ख्वाहिश पाले रखते हैं। उधर, उम्मीदों के धूप-छांव के बीच आपका कथावाचक सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पर उम्मीद के लिए लिखे जाने वाले शब्दों को देखने में जुटा है, दोस्तों के फेसबुक स्टेटस को पढ़ रहा है और टि्विट पीपुल्स की 140 शब्दों की कथाओं के तार पकड़ रहा है।
उम्मीद वाली धूप के बीच उसे अपने प्रिय सदन झा का स्टेटस पढ़ने को मिला। उन्होंने लिखा- “ मुझे खाली डिब्बा हमेशा से मोहित करता रहा है..।“ कथावाचक को यह वाक्य तिलिस्म की तरह लगा, डीडी पर एक जमाने में दिखाए जाने वाले चंद्रकांता की याद आई, जहां अक्सर क्रूर सिंह यक्कू कहते हुए हथेली के जरिए एक डिब्बा बना देता था। हम उम्मीद कहीं भी देख लेते हैं, खाली कमरों में भी और मानुष से भरे कमरे में भी, जहां विचारों का अविरल प्रवाह हो रहा हो या फिर गाम की नहर, जिसमें बलूहाई पानी बह रही हो।
सदन झा आगे कहते हैं कि खाली डिब्बा अच्छा लगने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें भरा हुआ डिब्बा अच्छा नहीं लगता है। वे कहते हैं- “ लेकिन खाली बर्तन में आप तमाम सपनों और हसरतों को संजो सकते हैं। नये साल की शुभकामनायें कुछ इसी तरह की हैं। फोन पर एक साथ भेजे गये संदेश, ईमेल और फेसबुक पर अन्य हजारों के साथ आये विशेज में अपनेपन की गर्माहट, तकनीकि के खेल और नये साल की कर्मकांड के बीच यह साल खाली केनवास सा सामने है… सपनों के रंग के इंतजार में, आपकी हसरतों का राह तकते. ।”
इस पूरी विचार प्रक्रिया को पढ़ते हुए यही खयाल आता है कि खाली डिब्बे में भर जाने की हिम्मत होती है। डिब्बे के ऊपर रंग भर दें तो और भी सुंदर। खालीपन से भारीपन की यात्रा, आहिस्ता आहिस्ता जारी रहती है, बस साल बदलता जाता है। जब सदन झा खाली केनवास की बात करते हैं तब जवाहर लाल यूनीवर्सिटी के लाल दीवारों की याद आती है, जहां हाथों से लिखी बातें मन के कमरे में पहुंच जाती थी।
आपके कथावाचक को फेसबुक के स्टेटस उम्मीद वाली धूप ही लगती है और जिस चीज से वह इस धूप का आनंद उठाता है वह सचमुच में एक खाली डिब्बा ही हैं, जिसे वह जाने कब से भरता आ रहा है। ठीक इसी बीच सुशील झा का स्टेटस पढ़ने को मिलता है। वे लिखते हैं- “ साल बदले तो बदले, ईमान न बदले।“
कथावाचक एक पल के लिए ठहर जाता है। सुशील झा के स्टेटस के बहाने सदन झा के खाली डिब्बे में उसे बदलते साल की अनवरत कथा के बीच ‘ईमान’ नाम का एक पात्र दिखने लगता है। कथावाचक को अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के पात्र भिम्मल मामा याद आने लगते हैं, जिसे बार-बार दौरा पड़ता है लेकिन इसके बावजूद उसका ईमान नहीं डोलता है..। वहीं बावनदास याद आते हैं, जिसने दो ही डग में इंसानियत को नाप लिया था।
सुशील झा का स्टेटस इन्हीं बातों को याद दिलाता है। भरम से परे दुनिया को देखने की ख्वाहिशों को पालने की इच्छा बढ़ने लगती है।
खैर, 2012 में आप उम्मीदों के धूप सेकते रहिए, खाली डिब्बे को भरते रहिए साथ ही ईमान को बचाए रखिए। कथावाचक को अंचल की याद आने लगी है, वह शहरी मुखौटा उतारने जा रहा है, रेणु की ही वाणी में वह कहता है- नए साल में 'मुखौटा' उतारकर ताजा हवा फेफड़ों में भरें ...
चलते-चलते कबीर वाणी सुनिए. शुभा मुदगल की आवाज में
उम्मीद वाली धूप के बीच उसे अपने प्रिय सदन झा का स्टेटस पढ़ने को मिला। उन्होंने लिखा- “ मुझे खाली डिब्बा हमेशा से मोहित करता रहा है..।“ कथावाचक को यह वाक्य तिलिस्म की तरह लगा, डीडी पर एक जमाने में दिखाए जाने वाले चंद्रकांता की याद आई, जहां अक्सर क्रूर सिंह यक्कू कहते हुए हथेली के जरिए एक डिब्बा बना देता था। हम उम्मीद कहीं भी देख लेते हैं, खाली कमरों में भी और मानुष से भरे कमरे में भी, जहां विचारों का अविरल प्रवाह हो रहा हो या फिर गाम की नहर, जिसमें बलूहाई पानी बह रही हो।
सदन झा आगे कहते हैं कि खाली डिब्बा अच्छा लगने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें भरा हुआ डिब्बा अच्छा नहीं लगता है। वे कहते हैं- “ लेकिन खाली बर्तन में आप तमाम सपनों और हसरतों को संजो सकते हैं। नये साल की शुभकामनायें कुछ इसी तरह की हैं। फोन पर एक साथ भेजे गये संदेश, ईमेल और फेसबुक पर अन्य हजारों के साथ आये विशेज में अपनेपन की गर्माहट, तकनीकि के खेल और नये साल की कर्मकांड के बीच यह साल खाली केनवास सा सामने है… सपनों के रंग के इंतजार में, आपकी हसरतों का राह तकते. ।”
इस पूरी विचार प्रक्रिया को पढ़ते हुए यही खयाल आता है कि खाली डिब्बे में भर जाने की हिम्मत होती है। डिब्बे के ऊपर रंग भर दें तो और भी सुंदर। खालीपन से भारीपन की यात्रा, आहिस्ता आहिस्ता जारी रहती है, बस साल बदलता जाता है। जब सदन झा खाली केनवास की बात करते हैं तब जवाहर लाल यूनीवर्सिटी के लाल दीवारों की याद आती है, जहां हाथों से लिखी बातें मन के कमरे में पहुंच जाती थी।
आपके कथावाचक को फेसबुक के स्टेटस उम्मीद वाली धूप ही लगती है और जिस चीज से वह इस धूप का आनंद उठाता है वह सचमुच में एक खाली डिब्बा ही हैं, जिसे वह जाने कब से भरता आ रहा है। ठीक इसी बीच सुशील झा का स्टेटस पढ़ने को मिलता है। वे लिखते हैं- “ साल बदले तो बदले, ईमान न बदले।“
कथावाचक एक पल के लिए ठहर जाता है। सुशील झा के स्टेटस के बहाने सदन झा के खाली डिब्बे में उसे बदलते साल की अनवरत कथा के बीच ‘ईमान’ नाम का एक पात्र दिखने लगता है। कथावाचक को अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के पात्र भिम्मल मामा याद आने लगते हैं, जिसे बार-बार दौरा पड़ता है लेकिन इसके बावजूद उसका ईमान नहीं डोलता है..। वहीं बावनदास याद आते हैं, जिसने दो ही डग में इंसानियत को नाप लिया था।
सुशील झा का स्टेटस इन्हीं बातों को याद दिलाता है। भरम से परे दुनिया को देखने की ख्वाहिशों को पालने की इच्छा बढ़ने लगती है।
खैर, 2012 में आप उम्मीदों के धूप सेकते रहिए, खाली डिब्बे को भरते रहिए साथ ही ईमान को बचाए रखिए। कथावाचक को अंचल की याद आने लगी है, वह शहरी मुखौटा उतारने जा रहा है, रेणु की ही वाणी में वह कहता है- नए साल में 'मुखौटा' उतारकर ताजा हवा फेफड़ों में भरें ...
चलते-चलते कबीर वाणी सुनिए. शुभा मुदगल की आवाज में
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