Thursday, September 08, 2011

जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।

 
जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।

प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

जिन ढूँढा तिन पाइयॉं, गहरे पानी पैठ।

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।


बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।

जो मन खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।।


सॉंच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै सॉंच है, ताके हिरदै आप।।


बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।

हिये तराजू तौल‍ि के, तब मुख बाहर आनि।।

2 comments:

मृत्युंजय said...

कबिरा मन निर्मल भाया, जैसे गंगा नीर I
पाछे-पाछे हरि फिरें, कहत कबीर-कबीर II

Patali-The-Village said...

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मनभर खाय|
टूक एक के कारने, स्वान घरे घर जाय||