चनका गांव के एक तालाब की तस्वीर। |
उस बस्ती से दूर जहां हमारे अपने लोग बसे हैं, जहां संस्कार नामक एक बरगद का पेड़ खड़ा है और जहां बसे वहां बांस का झुरमुट हमारे लिए आशियाना तैयार करने में जुटा था। मधुबनी से पूर्णिया की यात्रा में दो छोर हमारे लिए पानी ही है। उस पार से इस पार। कालापानी। कुछ लोग इसे पश्चिम भी कहते हैं। बूढ़े-बुजुर्ग कहते हैं- जहर ने खाउ माहुर ने खाउ, मरबाक होए तो पूर्णिया आऊ (न जहर खाइए, न माहुर खाइए, मरना है तो पूर्णिया आइए)। और हम मरने के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए इस पार आ गए।
विशाल परती जमीन, जिसे हॉलीवुड फिल्मों में नो मेन्स लैंड कहा जा सकता है, हमारे हिस्से आ गई। शहर मधुबनी से शहर-ए-सदर पूर्णिया अड्डा बन गया। मधुबनी जिले के तत्सम मैथिली से पूर्णिया के अप्रभंश मैथिली की दुनिया में हम कदम रखते हैं। हमारी बोली-बानी पे दूसरे शहर का छाप साफ दिखने लगा। सूप, कुदाल खुड़पी सबके अर्थ, उच्चारण, हमारे लिए बदल गए, लेकिन हम नहीं बदले, जुड़ाव बढ़ता ही चला गया, संबंध प्रगाढ़ होते चले गए।
कोसी एक कारक बन गई, पूर्णिया और मधुबनी के बीच। दो शहर कैसे अलग हैं, इसकी बानगी बाटा चौक और भट्टा बाजार है। एक भाषा यदि मधुबनी को जोड़ती है तो वहीं विषयांतर बोलियां पूर्णिया को काटती है, लेकिन एक जगह आकर दोनों शहर एक हो जाता है, वह है सदर पूर्णिया का मधुबनी मोहल्ला। कहा जाता है कि उस पार से आए लोगों ने इस मोह्ल्ले को बसाया। यहीं मैथिल टोल भी बस गया। मधुबनी मोहल्ला घुमने पर आपको बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनका ऑरिजन मधुबनी जिला है।
धीरे-धीरे यहां प्रवासी अहसास भी मैथिल भाषियों को होने लगा, बंगाल से सटे रहने की वजह से बांग्ला महक फैलती ही चली गई। आप उस पार के हैं, यह पूर्णिया में भी मधुबनी से आए लोगों को सुनने को मिलता है। उस पार से आए किसान यहां जमींदार बन गए, निजाम बन गए तो कुछ, कई की आंख की किरकरी (चोखेर बाली) बन गए।
शहर पूर्णिया और शहर मधुबनी में जो अंतर सपाट तरीके से दिखता है वह लोगबाग। कामकाजी समाज आपको मधुबनी मिलेगा लेकिन पूर्णिया में यह अनुभव कुछ ही मोहल्लों में मिलेगा। यह शहर शुरुआत में बड़े किसानों का आउट हाउस था। वे यहां कचहरी के काम से आते थे और कुछ वक्त गुजारा करते थे। उस पढ़ाई के लिए लोग मधुबनी-दरभंगा के कॉलेजों पर ही आश्रित थे। शिक्षा के मामले में मधुबनी-दरभंगा बेल्ट ही मजबूत था बनिस्पत पूर्णिया अंचल।
अब हम धीरे-धीरे शहर से गांव की ओर मुड़ते हैं। इशाहपुर (मधुबनी जिला का गांव) से खिसकते हुए एक अति पिछड़े गांव चनका (पूर्णिया जिला का गांव) पहुंच जाते हैं। धोती से लुंगी में आ जाते हैं। पोखर से धार (कोसी से फुटकर कई नदियां पूर्णिया जिले के गावों में बहती है, जिसमें जूट की खेती होती है) बन जाते हैं। माछ से सिल्ली (पानी में रहने वाली चिडियां, जिसे कोसी के इलाके में लोग बड़े चाव से खाते हैं) के भक्षक बन जाते हैं। मैथिली गोसाइन गीत से भगैत बांचने लगते हैं। धर्म-संस्कार का असर कम होने लगता है तो कुछ लोग डर से इसके (धर्म) और गुलाम बनते चले जाते हैं।
(जारी है, मधुबनी से पूर्णिया, इशाहपुर से चनका का सफर)
10 comments:
बेहतरीन शुरुआत. उम्मीद है ऐसे ही जारी रहेगी उस पार से इस पार की यात्रा...
इब्तेदा तो बहुत ही अच्छा है. अभी सब दिन सुबह इन्तेजार रहेगा.
@ सदन झा- शुक्रिया सर, आपके सवालों के जवाबों में उलझा हुआ हूं। शायद आपके सवालों को शब्दों से हल कर सकूं।
गिरीन्द्र, आपकी लेखनी अच्छी है या यादों की सहेजने की कला, मैं उधेरबुन में हूं। मजा आता है आपको पढ़कर। सच कहूं हम जो सोचते हैं, आप उसे शब्दों में ढाल देते हैं। मैं फेसबुक के रास्ते यहां पहुंचा, रेणु लिटरेचर की छाप है आप पर। लिखते रहिए।
संजय शर्मा
पढ़कर लगा कि मैला आंचल का डेढ़ पन्ना फाड़कर यहां साट दिए हो।.तुम्हें पढ़ते हुए अक्सर लगता है कि डोली मैं बैठी बहन या मरघट की तरफ जाते बुजुर्ग पर छाती पीटकर रोने के बजाय देहरी पर खड़ा होकर कोई भीतर ही भीतर बुदबुदा रहा है- कितना कुछ चला जा रहा है इनके जाने से। एक भाषा और एक रोजमर्रा के बीच बननेवाली संस्कृति के छीजने की तड़प लगती है।.आगे भी इंतजार रहेगा।.
बहुत ही अच्छा. दूसरे का इंतज़ार रहेगा. रेणु की गंध और मैथिली की खुशबू है.
Brilliant piece. Nostalgic.
मधुबनी से पूर्णिया, इशाहपुर से चनका के सफर का सुन्दर वर्णन प्रस्तुति हेतु धन्यवाद
कुछ संस्मरण आपकी यादों की तलहटी में बड़ा सा पत्थर फेंक ऊपर तक हलचल मचा देते हैं, बहुत कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ...बहुत खूब।
Bahut hi achcha likhate hai sir, Kafi achcha laga apka yah lekh..
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