हम सब जो जींस और टी-शर्ट में इतराते फिरते हैं, दरअसल चैनल काल की उपज हैं। हम पर बहुत जल्दी ही टीवी का रंग चढ़ जाता है। टीवी में हम दुनिया को देखते हैं और फिर उसी हसीन दुनिया की तरह रंगीन बनने में जुट जाते हैं। लेकिन उसी टीवी में मेरे लिए रविवार को छपने वाला एक पुराना पन्ना भी है, जिसमें मैं दुनिया को नहीं बल्कि खुद को देखता हूं। दुनिया, जिसे लोग जादू का खिलौना मानते हैं, उसे इस पुराने पन्ने में मिट्टी की तरह पेश किया जाता है। मिट्टी, जो मेरा मूल है, जो मेरे तन में समाया है, उसी मिट्टी को पुराने पन्ने में देखता हूं तो मन फिर से मिट्टी में मिल जाने का करता है। मेरे लिए, जो एक आम इंसान है, जो कभी स्पेशल नहीं बनना चाहता है, उसके लिए टीवी में अखबार का पुराना पन्ना रवीश की रिपोर्ट है।
रिपोर्ट, जिसे रवीश नामक एक प्राणी दिखाता है, लेकिन इस आम-आदमी के लिए रवीश रिपोर्ट दिखाता नहीं पढ़ाता है, अखबार के पुराने पन्ने में। पन्ना, जो मटमेला है, जिसमें चाय के गिरने और फिर उसके सुख जाने का दाग लगा है, इसके बावजूद भी शब्द अपनी छाप बनाए हुए है, आम आदमी के लिए रवीश नामक प्राणी ऐसे ही शब्द पढ़ा रहा है। अयोध्या को वह एक इतिहासकार की तरह पेश कर रहा है।
इस आम-आदमी को एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर हॉस्टल में एक इतिहासकार-कहानीकार मिला था सदन झा, जिसे वह शबद-योगी मानता है, ठीक उसी तरह रवीश नामक प्राणी में भी कहानीकार पलथी मारे बैठा है। दरअसल जब इतिहास को समझने वाला कहानी गढ़ने लगता है तो सत्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है। रवीश नामक यह प्राणी अयोध्या को मायूसी में डूबे शहर की संज्ञा देता है तो मन कह उठता है कि बेताब दिल की यही तमन्ना है...ऐसे ही शब्द सुनने की आदत है।
वह खबरों के बीच से हंसते हुए चोट मारकर भाग जाता है, मानो गुल्ली-डंडा खेलते हुए डंडा मारकर कोई बच्चा दौड़ता हुआ किसी पेड़ के टोह छुप जाता हो। अयोध्या की कथा बांचते हुए जब यह प्राणी बताता है कि उस शहर के सरकारी अस्पताल में एक ऐसा डॉक्टर है जो आठ घंटे की शिफ्ट में तकरीबन 200 मरीजों को देखता है तो मन में एक आशा की किरण कौंध जाती है, आम आदमी प्राउड फील करने लगता है।
इस आम आदमी को मेले से इश्क है, तो अखबार के पुराने पन्ने में वर्तमान में अतीत का मेला पढ़ने को मिल जाता है। पल में उसे विश्वास नहीं होता लेकिन फिर उसे एक मुहावरा याद आता है कि तस्वीरें तो झूठ नहीं बोला करती, यहां तो वीडियो है। रवीश नामक प्राणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर में सलाना कार्तिक महीने में गंगा किनारे लगने वाले मेले में आम आदमी को घुमाता और पढ़ाता है और बताता है कि इस मेले की खास बात पारंपरिक बैलगाड़ी की सवारी है। यह मेला 11 दिन तक चलता है. यह प्राणी खुद भी बैलगाड़ी की सवारी करता है, ऐसे में तीसरी कसम के हीरामन की याद आ जाती है। मुंह से अनायस ही निकल पड़ता है-इस्सससस।
भागम-भाग और विज्ञापनमय पत्रकारिता काल में रवीश कुमार नामक प्राणी एक आशा की तरह है, जो बताता है कि मौका मिले तो हमें काम आम आदमी के लिए भी करना चाहिए, फाइव स्टार होटल की प्रेस-वार्ता और वहां मिलने वाली विज्ञप्ति व फुटेज से इतर। यह आम आदमी, जो टीवी की दुनिया में कोर्ट-पेंट-टाई लगाने वालों को करीब से देखता है, उसके लिए रवीश कुमार नामक प्राणी एक सुबह है। गुलजार की सुबह की तरह, जिसके लिए सुबह भी एक ख्वाब है। गुलजार यूं ही नहीं कहते हैं- सुबह-सुबह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाजा खोला...
रिपोर्ट, जिसे रवीश नामक एक प्राणी दिखाता है, लेकिन इस आम-आदमी के लिए रवीश रिपोर्ट दिखाता नहीं पढ़ाता है, अखबार के पुराने पन्ने में। पन्ना, जो मटमेला है, जिसमें चाय के गिरने और फिर उसके सुख जाने का दाग लगा है, इसके बावजूद भी शब्द अपनी छाप बनाए हुए है, आम आदमी के लिए रवीश नामक प्राणी ऐसे ही शब्द पढ़ा रहा है। अयोध्या को वह एक इतिहासकार की तरह पेश कर रहा है।
इस आम-आदमी को एक बार दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर हॉस्टल में एक इतिहासकार-कहानीकार मिला था सदन झा, जिसे वह शबद-योगी मानता है, ठीक उसी तरह रवीश नामक प्राणी में भी कहानीकार पलथी मारे बैठा है। दरअसल जब इतिहास को समझने वाला कहानी गढ़ने लगता है तो सत्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है। रवीश नामक यह प्राणी अयोध्या को मायूसी में डूबे शहर की संज्ञा देता है तो मन कह उठता है कि बेताब दिल की यही तमन्ना है...ऐसे ही शब्द सुनने की आदत है।
वह खबरों के बीच से हंसते हुए चोट मारकर भाग जाता है, मानो गुल्ली-डंडा खेलते हुए डंडा मारकर कोई बच्चा दौड़ता हुआ किसी पेड़ के टोह छुप जाता हो। अयोध्या की कथा बांचते हुए जब यह प्राणी बताता है कि उस शहर के सरकारी अस्पताल में एक ऐसा डॉक्टर है जो आठ घंटे की शिफ्ट में तकरीबन 200 मरीजों को देखता है तो मन में एक आशा की किरण कौंध जाती है, आम आदमी प्राउड फील करने लगता है।
इस आम आदमी को मेले से इश्क है, तो अखबार के पुराने पन्ने में वर्तमान में अतीत का मेला पढ़ने को मिल जाता है। पल में उसे विश्वास नहीं होता लेकिन फिर उसे एक मुहावरा याद आता है कि तस्वीरें तो झूठ नहीं बोला करती, यहां तो वीडियो है। रवीश नामक प्राणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गढ़मुक्तेश्वर में सलाना कार्तिक महीने में गंगा किनारे लगने वाले मेले में आम आदमी को घुमाता और पढ़ाता है और बताता है कि इस मेले की खास बात पारंपरिक बैलगाड़ी की सवारी है। यह मेला 11 दिन तक चलता है. यह प्राणी खुद भी बैलगाड़ी की सवारी करता है, ऐसे में तीसरी कसम के हीरामन की याद आ जाती है। मुंह से अनायस ही निकल पड़ता है-इस्सससस।
भागम-भाग और विज्ञापनमय पत्रकारिता काल में रवीश कुमार नामक प्राणी एक आशा की तरह है, जो बताता है कि मौका मिले तो हमें काम आम आदमी के लिए भी करना चाहिए, फाइव स्टार होटल की प्रेस-वार्ता और वहां मिलने वाली विज्ञप्ति व फुटेज से इतर। यह आम आदमी, जो टीवी की दुनिया में कोर्ट-पेंट-टाई लगाने वालों को करीब से देखता है, उसके लिए रवीश कुमार नामक प्राणी एक सुबह है। गुलजार की सुबह की तरह, जिसके लिए सुबह भी एक ख्वाब है। गुलजार यूं ही नहीं कहते हैं- सुबह-सुबह इक ख्वाब की दस्तक पर दरवाजा खोला...
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