Friday, January 21, 2011

चॉकलेट के बहाने ‘शुभारंभ’

एक ब्लॉग है- बेटियों का ब्लॉग। यहां पांच जुलाई 2008 का एक पोस्ट है- तिन्नी का तमाचा। इसे लिखा है कस्बा वाले रवीश कुमार ने। जरा पोस्ट की पंक्तियों पर गौर करें - बच्चे अपने बचपन में मां बाप की खूब पिटाई करते हैं। मरता क्या न करता इस पिटाई पर अपमानित होने के बजाए भावुक हो जाता है। सुबह सुबह तिन्नी बाज़ार जाने के लिए ज़िद करने लगी। मुझे भी कुछ ख़रीदना है। अंडा ब्रेड के साथ  उसने सेंटर फ्रेश और मेन्टोस भी खरीदे। घर आकर सोचता रहा कि सेंटर फ्रेश खाने की आदत कहां से पड़ गई। तभी तिन्नी आई और कस कर एक तमाचा रसीद कर दिया। इससे पहले कि झुंझलाहट पितृतुल्य वात्सल्य में बदलती तिन्नी ने ही ज़ाहिर कर दिया। देखा बाबा मेन्टोस खाते ही मैं किसी को भी तमाचा मार सकती हूं। मेन्टोस में शक्ति है। ज़रूर ये विज्ञापन का असर होगा। विज्ञापन में शक्ति प्राप्त करने की ऐसी महत्वकांक्षा तिन्नी में भर दी कि ख़मियाज़ा मुझे उठाना पड़ा।
 
 इस वक्त जब विज्ञापनों को लेकर सोच रहा हूं तो यह पोस्ट मुझे सबसे अधिक अपनी ओर खींच रहा है। विज्ञापनों की ओर खींचाव की कहानी हर कोई सुना सकता है क्योंकि हर दिन हम-आप इससे रूबरू होते हैं। दरअसल मेरे लिए टीवी पर कार्यक्रमों के बीच दिखने वाले विज्ञापन चांद की तरह हैं, चांद, वो भी पूर्णिमा वाला (पूर्णता का अहसास)। मिनटों में एक ऐसी कहानी गढ़ती दुनिया, जिससे शायद हर कोई अपनापा महसूस करता हो। इन दिनों विज्ञापन जगत में सामाजिक बदलाव और यादों को सबसे अधिक अहमियत दी जा रही है। 

अंग्रेजी हो या फिर हिंदी चैनल, हर जगह ऐसे विज्ञापन दिख जाते हैं, जो हमें रेगिस्तान में झरने का अहसास दिलाती है। बेदम सामाचारों के बीच जब अगले समाचार के बीच विज्ञापन की बारी आती है तो मेरे जैसे कई दर्शकों को जरूर सुखद अहसास होता होगा। याद कीजिए शुभारंभ श्रृंखाल के विज्ञापनों को। चॉकलेट के बहाने सोशल मैसेज का इससे बेहतर उदाहरण बहुत कम ही मिलता है। मेरे जैसे लोग, जो वजन बढ़ने से परेशान हैं, उनके लिए भी शुभारंभ के पास काफी कुछ है। जनाब, सुबह उठकर जूते पहनकर घर से निकलने का संदेश भी अब कंपनियां देने लगी है। विज्ञापनों में बच्चों की जुबां का सबसे बेहतर इस्तेमाल हो रहा है। इसका उदाहरण इंश्योरेंस कंपनी का एक विज्ञापन है, जिसमें बच्चा पूछता है- मेरे फ्यूचर के बारे में सोचा है क्या.. यह दो लोगों की बातचीत से उठाई गई लाइन हैं. पिता-बेटे की यह बातचीत जब खत्म होती है, तभी एक इंश्योरेंस कंपनी का एक आदमी अपने बहुत प्रभावशाली पंच लाइन के साथ हाज़िर होता है। यह पंचलाइन है- कभी आपने बड़े होने के बाद भी अपने माँ बाप से ऐसे सवाल किए हैं आप अपने फैसले ज़रूर ले सकते हैं लेकिन आपने कभी अपने माँ बाप को ऐसे सवालों के फेर में डाला। 

 दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मेरे कई भोजपुरी भाषी दोस्त थे, उन्हीं से कई भोजपुरी कहावत और गीतों को सुना। फिलहाल एक कहावत याद आ रही है- सुनी सबकी, करी मन की (सभी की बात सुनो लेकिन करो वही जो मन करे)। अभी यह कहावत मुझे एक विज्ञापन के संदर्भ में याद आ रही है। एक विज्ञापन है, जिसका पंचलाइन है-आजकल के बच्चे करियर नहीं पैशन खोजते हैं। इस पंचलाइन की श्रृंखला में कई विज्ञापन है। इनमें मेरा सबसे पसंदीदा है, जिसमें लड़की अपने पिता को मुर्गा खिलाती है और उन्हें स्वाद पसंद आने पर कहती है कि आपकी इच्छा थी कि मैं  टीचर बनूं। मैंने जिद कर कुकिंग का प्रशिक्षण लिया। आज आपको मुर्गा खिला रही हूं, टीचर बनती तो मुर्गा’ (स्कूल में दिया गया दंड) बनाती।  यही है सोशल मैसेज देते हैं विज्ञापनों की हसीन दुनिया।
 
निजी तौर पर मैं कुछ विज्ञापनों को जादू का पिटारा मानता हूं।  कभी-कभी कुछ विज्ञापन रिश्तों के मूल्यों को समझाते वक्त हमें भावुक कर देते हैं  लेकिन इसी बीच वह हमें लालची भी बनाने का काम करता है।  जरा आप याद कीजिए बैंकों या बीमा कंपनियों के विज्ञापनों को।  एचडीएफसी बैंक का विज्ञापन तो हमें बुढापे तक धन सहेजने की कला सीखाता है। शुरुआती दृश्यों में भावुक बना देने के बाद वह हमें पैसे बनाने की बात कहता है और यहीं हम लालची बन जाते हैं। एक्सीस बैंक के एक विज्ञापन में समान से भरे घर की बात कही जा रही है. सूत्र है, यदि  पैसे नहीं हैं तो बैंक का सहारा लीजिए. इस विज्ञापन की शुरुआत में एक बच्चा अपने पिता से  कहता है कि अरे घर में एसी भी नहीं है, केबल भी नहीं है… तभी पिता के मोबाइल में एसएमएस आता है कि बैंक या किसी म्यूचल फंड का सहारा लें जनाब।  इन विज्ञापनों की सबसे बडी़ खासियत यही होती है कि यह दर्शकों के नब्ज को समझता है, मसलन आपको भावुक बनने पर मजबूर कर देता है. आप लाख चाहें लेकिन इन विज्ञापनों को एक बार देखने की कोशिश जरूर ही करेंगे और बाद में यही आपको लालची बनने के लिए मजबूर करता है। ये विज्ञापन कहते हैं कि खूब खर्च करो, पैसे लुटाओ, सामानों से घर को भर डालो...लेकिन इसी बीच यह हमें सीख भी देता रहता है कि अपने से बड़ो का सम्मान भी करो।  याद कीजिए स्टेट बैंक के डेबिट कार्ड का वह पुराना विज्ञापन, जिसमें दो पोते दादी के लिए सामान खरीदने के लिए आपस में प्रतियोगिता करते नजर आते हैं। 

4 comments:

Hindiblogjagat said...

Good Post. You are in Hindiblogjagat.

Pooja Prasad said...

विज्ञापनों की दुनिया पर पैनी नजर डाली है आपने। बढ़िया है। अच्छी पोस्ट

राजेश उत्‍साही said...

पर आपका इशारा किधर है यह बात कुछ साफ नहीं हुई।

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

राजेश जी, मेरा बस यही कहना है कि एड भी अब सोशल मैसेजिंग का एक सशक्त टूल बन गया है।