Wednesday, January 19, 2011

इंटरनेट पर यादों का पॉपकार्न


मैं ब्राउजरों में फंसा हूं, एक ऐसा जाल जो मुझे इंटरनेट की दुनिया से करीब लाता है। मॉजिला और गूगल क्रोम से लिपटा पड़ा हूं। भारत एक खोज की तरह ब्लॉग एक खोज में जुटा हूं। एक ऐसी दुनिया में चांद-तारे खोज रहा हूं जो मुझे उन हजारों-लाखों लोगों की यादों से जोड़ सके।  मैं जानना चाहता हूं कि इस फ्लेटफॉर्म पर लोग किस तरह से बेबाकी से मन की बात, अनुभवों और ढ़ेर सारी यादों को साझा करते हैं। मेरी नजर में ब्लॉगिस्तान ऐसी ही दुनिया है, जहां संस्मरणों के तारे टिमटिमा रहे हैं। मैं उसी दुनिया को टटोल रहा हूं। ऐसे में जो तारे-नक्षत्र मेरे हाथ में आए, आज उसी को साझा कर रहा हूं। शहर-दर-शहर घूमने की चाहत ने ब्लॉगिस्तान से बेहद करीब ला दिया है। यहां मैं ट्रेन की नहीं मन की सवारी कर रहा हूं। 

भले ही आप बड़ी लाइन होकर दिल्ली से दरभंगा जाते हो, लेकिन इंटरनेट पर मेरे मन को दरभंगा की सैर भाया छोटी लाइन से करनी पड़ती है, यहां दरभंगा लोकल से ग्लोबल हो जाता है, मैं ब्लॉग के लेखक अविनाश की बातों में खो जाता हूं। यहां एक पोस्ट है मानो राहू चंद्रमा पर चाबुक चलाया हो.. । इसमें अविनाश संगीत के बहाने दरभंगा ले जा रहे हैं। वो कहते हैं- आकाशवाणी दरभंगा में एक कलाकार थे। आंखों की रोशनी बचपन से नहीं थी। हम वहां कैज़ुअल आर्टिस्‍ट थे। यूं भी अपने शहर की सांस्‍कृतिक आवोहवा में बेताल की तरह उड़ते रहने के दिन थे और हमारी हसरतें इतनी थीं कि सिनेमा हॉल को छोड़ कर दो-ढाई घंटे से ज़्यादा कहीं बैठने नहीं देती थीं। एक बार उन्‍होंने हार‍मोनियम सिखाने का वायदा किया। चाचा के पास बेतिया में हारमोनियम था, जिसे उठा कर हम दरभंगा ले आये थे। उनसे सरगम सीख पाये। सा सा सा सा निधा निधा प म प गग प म प गरे गरे नि रे सा। सा नि ध, ध म प, म प ग, प ग रे, ग रे सा। फिर देशी शराब की दुकान पर हमें ले जाते। पौव्‍वा खरीदते और कहते - आओ रंग जमाएं। लेकिन उन दिनों वे हमें  पीना नहीं सिखा पाये। हम कुछ और देर तक बचे रहना चाहते थे। बाद में तो शराब कुछ ऐसे शुरू हुई, मानो उससे जनम-जनम का अपनापा हो। लेकिन तब शराब नहीं पीने के कुबोध में ही हारमोनियम के मास्‍टर हमसे छूट गये।
तस्वीर साभार-preservationnj.wordpress.com

  आहिस्ता-आहिस्ता मन की बातों को समझने की तड़प तेज होने लगती है। अब बाइस्कोप को जानने की चाहत बढ़ जाती है। इस मोड़ पर इंडियन बाइस्कोप लिए दिनेश श्रीनेत मिलते हैं, जो फिल्म के किस्से बेहद अलग तरीके से बयां कर रहे हैं। फिल्मों के अलावा वे अपनी यादों को भी साझा कर रहे हैं। यहां एक पोस्ट हाथ लगती है- मन का रेडियो। पढ़ते वक्त मन बावरा हो जाता है। इसमें दिनेश लिखते हैं- मुझे जो याद रह गया है वह है रेडियो पर चलने वाले फिल्मों के एड- फिल्में थीं- शालीमार, बिन फेरे हम तेरे, थोड़ी सी बेवफाई... इनके गीत का एक टुकड़ा, कुछ संवाद और फिल्म की टैगलाइन। बस, तैयार है एक शानदार एड। मानें या न मानें, कुछ एड तो इन्हीं की मदद से इतने शानदार बना करते थे कि मन होता था कि कब फिल्म सिनेमाहाल में लगे और कब जाकर उसे देख आएं।

बाइस्कोप से यारी के बाद मन बावरा हो चुका था, अब आवारगी की बारी थी। आवारा बनने के लिए भी क्या योग्य होना जरूरी है?  तो उत्तर है, जी हां । इंटरनेट पर एक ऐसे ही योग्य आवारा उम्मीदवार से मुलाकात होती है, जो गर्व से कहता है- मैं आवारा हूं। यहीं जाना कि सात फिल्में सात संस्कार की तरह हैं। फिल्मों की समीक्षा हो या फिर संगीत-गीत की समीक्षा, हर चीज यहां आपको अलग रूप में मिलेगी। यहां एक पोस्ट है, जिसे पढ़कर ऐसा लगता है, मानो गीत, गिलास में, आपके हाथ में है, बस आप उसे पी लें। मैं मीहिर के पोस्ट- तुम जो कह दो तो आज की रात चाँद डूबेगा नहीं’, की बात कर रहा हूं। इसे पढ़ने के बाद ही समझ पाया कि म्यूजिक एलबम की समीक्षा ऐसी भी की जा सकती है। इसमें बारिश की बूंदों और बस के सफर के बहाने मीहिर फिल्म कमीने की गीत बुदबुदा रहे हैं। गुलजार के आशिकों के लिए तो यह तोहफे से बढ़कर है। मीहिर लिखते हैं- ..... मैंने खिड़की से ऐसा ही एक भीगा हुआ चाँद देखा. तेज़ बौछार में उसके कपड़े जब टपकते होंगे तो क्या वो उन्हें सुखाने के लिए दो उजले तारों के बीच फैलाकर लटका देता होगा? वहीं, बस वहीं मुझे अधूरेपन का अहसास हुआ. वहीं, बस वहीं मैंने एक कहानी लिखने का फ़ैसला किया. वहीं, बस वहीं मैंने भाग जाने की सोची. वहीं, बस वहीं मैंने कमीने के गीत सुने. जैसे पहली बार सुने, जैसे आखिरी बार सुने.। इसी तरह वे फिल्म गुलाल की भी बातें करते मिले, यहां भी अंदाज बाजार से साफ हटकर। इस फिल्म के बारे में मीहिर कहते हैं गुलाल अश्वत्थामा का पशुवत चित्कार है. मैं उन तमाम आलोचकों से असहमत हूँ जिन्हें गुलाल अनुराग की पुरानी फ़िल्मों के मुकाबले ज़्यादा सरल और उनके तय सांचों में ज़्यादा यथार्थवादी फ़िल्म लगती है. हर लिहाज से ब्लैक फ्राइडे अनुराग की सबसे ज़्यादा यथार्थवादी फ़िल्म थी. मेरे लिए गुलाल एक फ़ैंटसी है जिसमें उन तमाम अंधेरे वक़्तों की गूँज सुनाई देती है जिनसे इंसानी तारीख़ होकर गुज़री है।

मन के बावरे होने से लेकर आवारा होने तक की प्रोसेस पूरी हो चुकी थी। मैं अब लिखावटों में डूबना चाहता हूं। यहीं पर मुझे नई बात करते चंदन मिलते हैं। वो मुझे कविता-कहानी, संस्मरण की दुनिया में ले जाते हैं। यहां वे उदय प्रकाश के लिए सूरज की कविता पढ़ा रहे हैं। कविता की कुछ पंक्तियां आपसे शेयर कर रहा हूं- सिगरेट का आखिरी टुकड़ा उछाला/ नदी के सीने पर जैसे रोपना हो/ सिगरेट के बीज.. / उठी और चल पड़ी किसी सोच में डूबी/ जैसे जाना हो इन्हें टिहरी/ करना हो इन्हे नदी के फेफड़े का इलाज..... 

1 comment:

PD said...

बहुत बढ़िया पोस्ट.. मैं अक्सर ब्लॉग पर सिर्फ यादें ही पढ़ने आता हूँ..