Saturday, September 18, 2010

शिप्रा में साइकिल...

साइकिल अब सवारी नहीं रही, यह लिखते वक्त मेरे आंखों के सामने दोस्तों, संबंधियों की लंबी कतारें लग जाती है। हम सब साइकिल के साथ बड़े नहीं बल्कि कहिए, जवान हुए हैं। साइकिल की पॉयडल मारकर आगे बढ़ने की होड़ से ही जिंदगी में उड़ान भरने की कला हम सभी ने सीखी है, अफसोस अब हम उसे भूलते जा रहे हैं. साइकिल हम सभी की यादों से जुड़ी है। पहले अक्सर 10वीं में अच्छे रिजल्ट हासिल करने पर एक आम मध्यमवर्गीय लड़के या लड़की को साइकिल मिलती थी या फिर किसी-किसी को आठवीं में ही मिल जाया करती थी। यह सुख हम जैसे होस्टल में बड़े हुए लोगों को नहीं मिलती है, क्योंकि स्कूल या ट्यूशन पढ़ने या फिर बाजार से सब्जी लाने के लिए ऐसे लोगों को दूरियां पाटनी नहीं पड़ती है।
यही है शिप्रा पहुंचने वाली साइकिल
  खैर, साइकिल की याद आने की वजह शिप्रा (गाजियाबाद का रिहायशी इलाका) में रहने वाले मेरे बहनोई मदन झा हैं। उन्होंने मेल किया-
Got new "Gaari" today (Sent from my BlackBerry® Smartphone from !DEA)
 मैंने सोचा कि सोनी दीदी ने ऑल्टो कार हटाकर कोई दूसरी गाड़ी ली है लेकिन एटैचमेंट में निकली साइकिल की तस्वीर। इस तस्वीर को देखने के बाद साइकिल से जुड़ी तमाम पुरानी यादें ताजा हो चली। मुझे इंटर में पढ़ाई के दौरान नई साइकिल मिली थी, (दसवीं की पढ़ाई पूरी कर हॉस्टल से आजादी मिलने के बाद) उस वक्त लगा कि जैसे सड़क मेरे बाप की हो गई है, अपने दोस्तों के साथ मैं पूर्णिया की गलियों में साइकिल से कुलांचे मारता -फिरता था। बारिश के मौसम में पूर्णिया के कलाभवन के पीछे ढलान से हम यार-दोस्त बिना पॉयडल मारे नीचे आते थे.....पूर्णिया जैसे शहरों में. लड़कियों को सीधी नजर से देखने में हमें उस वक्त शर्म महसूस होती थी, ऐसे में साइकिल हमारे लिए एक माध्यम थी लड़कियों से चुपके से नजर मिलाने के लिए।  साइकिल की ऐसी कई यादें हम-आप सभी के जहन में होगी। लेकिन अब सोचना पड़ता है कि साइकिल की उपस्थिति हमारे जीवन में कैसी रह गई है। दीदी के घर साइकिल का आना शायद हेल्थ कंशस होने का नतीजा है, ऐसा मेरा सोचना है। 
  कानपुर में हमलोग (आई नेक्स्ट, टेबलॉयड न्यूज पेपर) 19 सितंबर को बाइकॉथन (साइकिल रैली) ऑर्गेनाइज कर रहे हैं। इस कार्यक्रम को लेकर भी मेरे मन में तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं, ये सभी सवाल साइकिल और जिंदगी से है। यहां आईआईटी कानपुर में मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में प्रोफेसर शांतनु भट्टाचार्य से जब साइकिल को लेकर बात हुई तो उन्होंने कहा कि दिल्ली में 8वीं में जब वो पढ़ते थे तो उस वक्त 25 पैसे प्रति घंटे की दर से साइकिल किराए पर मिलती थी। साइकिल ऐसे ही हमारी यादों में समायी हुई है लेकिन कमबख्त आगे बढ़ने की होड़ में ट्रेफिक के बंटाधार ने हमें रामप्यारी साइकिल से दूर कर दिया है(खासकर मेट्रो शहरों में)। ऐसे में शिप्रा में साइकिल आने की खबर मुझे पुण्यप्रसून वाजपेयी की बड़ी खबर (जी न्यूज पर रात 10 बजे आने वाला खबरों का प्रोग्राम) की तरह लगी। बस ख्वाहिश यही है कि साइकिल खबर न बन जाए...।

2 comments:

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

फ़ुरसत में … हिन्दी दिवस कुछ तू-तू मैं-मैं, कुछ मन की बातें और दो क्षणिकाएं, मनोज कुमार, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

विनीत कुमार said...

पापा की कही बस ही लाइन- बाय में चलाता है इसलिए साइकिल झझराकर रह जाता है।.बाकी जो लिखूंगा गिरि जल्द ही अपने ब्लॉग पर..