कई बार फंस जाता हूं
खुद से....
कहते हैं लोग यह कम्युनिकेशन गैप है.
मैं फंसते हुए भी खुश हूं
क्योंकि इस दरम्यान मैं सबसे अधिक
क्रिएटिव होता हूं,चीजों को समझ पाता हूं,
आदमी को जान पाता हूं..
ऐसे वक्त में
मोबाइल की घंटी
मुझे मंदिर के घंटा की तरह लगती है
जो मुझे चिढ़ाती है
मैं इसे पसंद नहीं करता
अनायास कोई आवाज, उद्वेलित कर देती है
एक ऐसी जगह की कल्पना में
दिन बिताना चाहता हूं
जहां हम शांति से
कुछ सोच सकें..
वो जो दूर ..बहुत दूर बैठा
मुझे देख रहा है न
वो मेरे अंतर्द्वंद को
समझ रहा होगा
शायद.............
2 comments:
कविता का पूरा स्वर आशामूलक है। यह आशा वायवीय नहीं बल्कि ठोस ज़मीन पर पैर टिके रहने के कारण है।
गीली मिट्टी पर पैरों के निशान!!, “मनोज” पर, ... देखिए ...ना!
हमेशा की तरह संवेदना को छूती लाइनें।
बस ये कि मैं शांति के लिए किसी शांत जगह की कल्पना नहीं करता,जो जगह है जिसमें बसों के हार्न है,मस्जिद की नवाज है,मंदिर के जो कान-फोडू घंटे की आवाज है,बच्चों का शोर है उन सबके बीच दब गयी-सहम गयी शांति को खोजना चाहता हूं,महसूस करना चाहता हूं। शोर से चिपक गयी शांति को उससे अलगाना चाहता हूं।
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