दिल्ली से इश्क हो गया। बरसों बाद देर रात पुरानी दिल्ली की जगमगाती गलियों में अवारागर्दी करते वक्त महसूस हुआ कि जन्नत की खूबसूरती को देखना है तो रात में दिल्ली-6 घूमो। हम कुछ यार-दोस्त लजीज खाने की जुगाड़ में चांदनी चौक पहुंचे। रात के तकरीबन 10 बज गए थे। जामा मस्जिद के गेट नंबर1 के सामने वाले इलाके में हम छलांग लगा चुके थे।
मटन और चिकन के शौकिन हम पुरानी दिल्ली की गलियों में खो जाने के लिए पूरी तरह तैयार थे। करीम पहुंचे तो लोगों की भीड़ इतनी थी कि हमें शायद वहां रात गुजारनी पड़ती, सो आगे बढ़े और बढ़ते चले गए। गलियां रात के बढ़ने के साथ और भी हसीन होती जा रही थी। आसमां में चांद भी आवारगी की सारी हदों को पार करने के लिए आमदा दिख रहा था। देर रात भी इतनी चहल -पहल देखकर अपने गांव से कुछ दूर पर दुर्गापूजा में लगने वाले मेले की याद आ गई।
आखिर हमें मिल ही गया अड्डा जहां हमें बेहतरीन मटन खाने को मिला। उस लजीज मटन को खाते वक्त देवघर की याद आई। बचपन में हम परिवार के किसी सदस्य के मुंडन या उपनयन में देवघर जाया करते थे, जिसे हमारे यहां संस्कार कहा जाता है (पता नहीं इन कार्यों के बाद संस्कार आता है या चला जाता है अभी तक समझ नहीं सका)। वहां भोज में देवघऱ के पंडे मटन बनाते थे। मटन बनाने में पानी के बदले पंडे घी का इस्तेमाल करते थे, जैसा वे आज भी करते हैं। ठीक वही स्वाद मुझे पुरानी दिल्ली के उस होटल के मटन में आया।
मटन ने हमें दिल्ली-6 से सीधे देवघर पहुंचने का आभास दिलाया। अक्सर नमकीन खाने के बाद मीठा खाने की सद्-इच्छा जागृत हो जाती है, फिर क्या, उन्हीं गलियों में रबड़ी खाने में हम बैठ गए। रबड़ी का भी स्वाद भी हमें दीवाना कर दिया। दिल्ली 6 की छाप मन में पक्की होती जा रही थी और होंठों पे अमीर खुसरो की पंक्तियां चढ़ सी गई- छाप-तिलक तज दीन्हीं रे तोसे नैना मिला के ....।
मुझे गालिब चचा याद आने लगे। उनकी गली भी नजदीक ही थी। जा तो नहीं सका लेकिन गुलजार
की कमेन्ट्री है जिसे 'इब्तिदा' के नाम से जाना जाता है , याद आ गया-
'' बल्लीमारान के मुहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के वो क़शीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वाह
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़ और
धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे,
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़के चलते हैं यहां
चूड़ीवालान के कटरे की बड़ी बी जैसे,
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोलें
इसी बेनूर अंधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुराने सुख़न का सफा खुलता है
असद उल्ला ख़ां ग़ालिब का पता मिलता है ।''
खाने के कार्यक्रम के बाद घड़ी पर निगाह गई तो कांटा 11.30 को पार करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा और हमारी टोली इतनी आशिक की पुरानी दिल्ली की गलियों को न छोड़ने की कसमें खा रही थी। किसी को उत्तर जाना था तो किसी को सुदूर दक्षिण। भारी मन से उन गलियों से विदा लेते वक्त हम सभी ने एक बार आसमां में चमकते चांद को देखा और फिर उसकी रोशनी नहाए जामा मस्जिद और लाल किला की लाल दीवार को।
4 comments:
वाह गिरिंद्रे जी..दिल्ली की गलियों में बढिया दावत उडाई आपने..और खूब किस्सा सुनाया..देवघर के मुंडन और उपनयन की बात ने तो कई पुराणी यादें तजा कर दी
वाह गिरीन्द्र भाई, अकेले अकेले ही .......। कुट्टी :-)। वैसे दिल्ली की बात ही कुछ और है।
वाह गिरीन्द्र भाई, अकेले अकेले ही .......। कुट्टी :-)। वैसे दिल्ली की बात ही कुछ और है।
''देवघऱ के पंडे मटन बनाते थे। मटन बनाने में पानी के बदले पंडे घी का इस्तेमाल करते थे''
मस्त संस्मरण. पंडों के मटन लजीज ही तो होते हैं ...
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