अपने संसदीय क्षेत्र पूर्णिया की सियासी तस्वीर पर मेरी नज़र। दिल्ली में रहकर पूर्णिया की सियासी गणित का जोड़-घटाव करना मुश्किल है। इसके लिए इंटरनेट के पन्नों , मसलन जागरण डॉट कॉम आदि का सहारा लेना पड़ा। आप जो तस्वीर देख रहे हैं वही है पप्पू यादव । उसके हाथ में जो तस्वीर है उस पर गौर करें।
गिरीन्द्र
चुनावी पटल पर पूर्णिया में अबकी भी स्थिति 2004 के लोकसभा चुनाव जैसी ही बनती दिख रही है। बीते चुनाव से अंतर केवल यह है कि इस बार राजेश रंजन ऊर्फ पप्पू यादव की मां शांतिप्रिया चुनाव मैदान में हैं। चुनावी जंग को दिलचस्प मुकाम तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह और शांतिप्रिया ही ले जाएंगे। हालांकि, राजद-लोजपा गठबंधन के शंकर झा, बसपा के नवीन कुशवाहा, लोकतांत्रिक समता दल के इरशाद अहमद खान, भाकपा माले की माधवी सरकार जैसे उम्मीदवार पूरी लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने में जुटे हैं।
उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह यहां से निवर्तमान सांसद हैं। उनकी मां माधुरी सिंह यहां से सांसद रह चुकी हैं। बाहुबली की संज्ञा पर क्रोधित हो जाने वाले पप्पू यादव ने अपने पालीटिकल करियर का अधिकांश यहीं गुजारा है-कभी जीतकर, तो कभी हार कर या फिर अपने दंबगई से।
यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि लगभग डेढ़ दशक की राजनीतिक यात्रा में पूर्णिया उनसे जुड़ा रहा। उनकी मां का यह चुनाव उनके लिए कई मामलों में अलग है तो दूसरी ओर कठिन भी। कांग्रेस का समर्थन तो उन्हें मिला लेकिन हाथ (कांग्रेस सिंबल) नहीं मिल सका। इन सबके अलावा शंकर झा का यहां से लोजपा प्रत्याशी बनना भी पप्पू यादव के लिए चुनौती ही है।
इस बार की राजनीति का मूड भी बदला हुआ है। पप्पू को लालू प्रसाद ने राजद से निकाला और इनकी पत्नी रंजीता रंजन का लोजपा से साथ छूट गया। पूर्णिया सीट पर पप्पू यादव की मां शांतिप्रिया की उम्मीदवारी कई कोण से घिर गयी है। भाजपा प्रत्याशी उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह की चुनौती तो है ही। राजद-लोजपा के साथ छत्तीस के रिश्तेकी कीमत भी चुकानी पड़ रही है। कांग्रेस के आधा-अधूरे सहारे ही वह पूरा खेल खएलना चाहते हैं।
पूर्णिया में इतना जरूर है कि पप्पू यादव के निजी रिश्ते इन सब पर भारी हैं। यह सीट यूं भी लालू-पासवान, नीतीश-मोदी सबके लिए प्रतिष्ठा की है। चूंकि, यदि सीट निकालने में शांतिप्रिया कामयाब हुई तो पप्पू यादव की राजनीतिक ऊंचाई कम से कम बिहार में बहुत बढ़ जाएगी। लोजपा ने यहां टिकट भले ही शंकर झा को दिया हो, क्षेत्र के लोग जातिगत फ्रेम में इसका नुकसान शांतिप्रिया और पप्पू सिंह, दोनो के लिए मानते हैं।
उदय सिंह के साथ इस बार यहां की बेहतर विधि-व्यवस्था और विकास का साथ है। लोगों की शिकायत इस बात की जरूर है कि जन से वे दूर रहे हैं। हालांकि हाल के दिनों में उदय सिंह ने खुद को सर्वजनप्रिय साबित करने की कोशिश की है।
लोजपा के शंकर सिंह पिछले चुनाव में पप्पू सिंह के साथ थे। अवधेश मंडल स्वयं खड़े हुए थे। इस बार पूर्णिया की सियासी धारा की सबसे खास बात यह है कि पिछले चुनाव में उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह के लिए सक्रिय रहीं लेसी सिंह इस चुनाव में चुप हैं- इसकी सीधी वजह तो उनका महिला आयोग का अध्यक्ष होना हो सकता है। लेकिन इसके 'राजनीतिक' कारण भी हैं। दलित और महादलित की यहां अच्छी आबादी है। आदिवासी भी हैं और कुछ बांग्लादेशी भी।
कोढ़ा के परमानपुर, रूपौली के भवानीपुर में महादलितों की बस्ती तक में नीतीश सरकार के कामकाज की धमक है। विधि व्यवस्था की अच्छी स्थिति पर तो राजग गठबंधन की सब तारीफ करते हैं, लेकिन अन्य समीकरण अलग-अलग हैं। कसबा, बनमनखी और पूर्णिया सदर में जदयू-भाजपा के विधायक हैं जबकि कोढ़ा में कांग्रेस की चर्चित विधायक सुनीता देवी। धमदाहा और रूपौली में राजद के विधायक हैं। परिसीमन में जिस बायसी को हटाया गया वहां का वोटिंग ट्रेंड अबतक पप्पू यादव के पक्ष में रहा है।
2004 के चुनाव में यहां उन्हें 44,905 वोट आए थे जबकि पप्पू सिंह को 22,310। इस बार यह हिस्सा किशनगंज में है। कोढ़ा सुरक्षित क्षेत्र को जोड़ा गया है। कोढ़ा में कांग्रेस की विधायक हैं। धमदाहा विधानसभा क्षेत्र के ढोकबा के मो.अहमद हुसैन कहते हैं कि अल्पसंख्यकों में यूं इरशाद,अलिमुद्दीन व अन्य भी उम्मीदवार हैं। लेकिन राजद की भी और कांग्रेस समर्थित शांतिप्रिया की मजबूत दावेदारी अल्पसंख्यक वोट पर है। बनमनखी से पप्पू को बढ़त मिली है। लेकिन इस बार वहां से भाजपा के कृष्ण कुमार ऋषिदेव विधायक हैं, जिसका लाभ उदय सिंह को मिलेगा। लगभग दो प्रतिशत के अंतर से पिछले लोकसभा चुनाव में लोजपा प्रत्याशी रहे पप्पू यादव हारे थे और इसी चुनाव में 57 हजार वोट जीवछ पासवान को झोपड़ी-लिफाफा के चक्कर में मिला था।
माधवी सरकार की पकड़ आज भी आदिवासियों पर मजबूत है। जो समीकरण बनता दिख रहा है उसमें आधे-आधे विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा और कांग्रेस समर्थित निर्दलीय शांतिप्रिया की प्रबल मजबूती है। लड़ाई में शामिल दूसरे प्रत्याशियों पर अब सारा दारोमदार है कि किसको वे कहां क्षति पहुंचाते हैं। जीत-हार का कारण भी यही नुकसान होगा।
2 comments:
बडा दिलचस्प होता होगा चुनाव आपके यंहा।
बढिया पड़ताल. भाई हम तब पप्पू सिंह की मां को देखे थे तब शायद पप्पू अम्मा के लिए बूथ-उथ मैनेज करता रहा होगा.
ट्रेन्ड हो गया है अब शायद इलेक्शन मैनेज कर ले.
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