Tuesday, April 28, 2009

जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो ये दुनिया...

मेरे दोस्तों को अक्सर शिकायत रहती है कि जो मुझे पसंद आ जाता है मैं उसी में रम जाता हूं, वह चाहे किताब हो या फिल्म। मैं इसमें गीत को भी शामिल करता हूं। हां, यह सच्चाई है और मुझमें इसमें कोई बुराई भी नहीं लगती है। अनुराग कश्यप की फिल्म गुलाल के बाद भी दोस्त-यार अपनी बात दोहराने लगे। लेकिन मैं क्या करूं, मुझे गुलाल पसंद आई और मैं उसे बार-बार देखता हूं.. ठीक वैसे ही जैसे रेणु के रिपोतार्जां को बार-बार पढ़ता हूं।


कमाल यह होता है कि आप जब किसी फिल्म को दोबारा-या तिबारा देखते हैं तो कुछ नया आप खोज ही लेते हैं। वह फिल्म की कमजोरी हो सकती है तो अच्छाई भी। गुलाल के साथ मैं ऐसा ही अनुभव कर रहा हूं। मसलन पीयूष के गीत को बार-बार सुनकर मन में कसक सी उठती है। गीत चमत्कार लगते हैं।


फिल्म समीक्षा की दुनिया में भी बदलाव लाने की जरूरत है। सोचता हूं कि जब सभी कुछ अपडेट हो सकता है तो फिर समीक्षक को यह छूट क्यों नहीं मिलती कि वह अपनी पूर्व समीक्षा को अपडेट करे।

गुलाल को लेकर ही चर्चा करूं तो फिल्म के दृश्यों में रंगों के इस्तेमाल को या फिर लाइटिंग को बार-बार देखकर समझा जा सकता है। यही कुछ अनुराग ने देव डी में भी किया था। अनुराग पसंद हैं तो उनकी बुराई भी सुनने को मिलती है, तो जवाब में तर्क भी देता हूं, लेकिन एक डर मुझे भी अनुराग से है। अब जब उनकी पहचान ऐसी फिल्मों के रूप में दर्शकों के बीच हो गई है तो उनसे अपेक्षाएं भी बढ़ जाती है।


सोचता हूं कि कामयाबी का नशा उन्हें एक ऐसी दुनिया में न पहुंचा दे जहां हर कोई उनसे सहमत दिखे। ऐसी स्थिती में उनके शुभचिंतकों को उन्हें चेताने की जरूरत होगी।


रामगोपाल वर्मा में भी यही दिखा, कभी-कभी वे अपनी फिल्में हमपर थोपते नजर आते हैं। मेरी कामना बस यही है कि अनुराग ऐसा न करें। उनके शुभचिंतक शायद यही कहेंगे-


जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो ये दुनिया,
अपना समझकर अपनों के जैसी संभालो य दुनिया।

3 comments:

Udan Tashtari said...

कभी कोई बात छू जाती है...आपको भी कोई ऐसा ही अहसास हो गया होगा गुलाल में.


सबकी अपनी पसंद होती है..जिसमें खुशी मिले. शुभकामनाऐं.

SKV said...

गिरीन्द्र भाई,
हालाँकि मैंने गुलाल देखी नहीं है लेकिन आपकी बात से मैं इत्तेफाक रखता हूँ, क्योंकि ठीक यही मेरे साथ तब हुआ जब मैंने "रंग दे बसन्ती" देखी. पहली बार तो वो मुझे कुछ ख़ास नहीं लगी लेकिन जब दुबारा देखी तो कुछ अच्छी लगी, फिर तीसरी बार देख कर बहुत अच्छी लगी. हलाँकि उसके गाने मुझे ज्यादा अच्चे नहीं लगे, असल में हमारे जैसे लोग जो सन साठ के गाने सुन-सुन कर बड़े हुए उन्हें आज के गाने समझने व पसंद करने में काफी दिक्कत होती है. पर अब गुलाल जरूर देखूँगा.
वैसे मुझे "चक दे इंडिया" और "तारे जमीन पर" भी बेहद पसंद हैं और मैं इन्हें अब तक चार-चार बार देख चुका हूँ. मुझे प्रकाश झा की सभी फिल्में अच्छी लगती हैं. अपहरण बहुत पसंद आयी. लोक धुनों पर आधारित गीत मुझे बेहद पसंद हैं.
आप जैसे युवा देश का भविष्य हैं, अपने साथ अपने जैसे युवाओं को जोडें और अपनी कलम की ताक़त का इस्तेमाल युवाओं में देश प्रेम
की लहर पैदा करने में करें.
शेष फिर !
आपका
श्रीकृष्ण वर्मा
team-skv.blogspot.com

कुश said...

अपना अनुभव भी कुछ ऐसा ही है.. अंतिम सलाह बिलकुल ठीक दी है आपने रामू के साथ भी यहीं हुआ था..