Saturday, May 02, 2009

बाहुबलियों की नहीं संगीत और साहित्य की भूमि है पूर्णिया

समय की तेज रफ्तार में बिहार के पूर्णिया जिले की तस्वीर भी बदलती जा रही है। महान उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की भूमि के लिए प्रसिद्ध पूर्णिया को लोग पप्पू यादव और न जाने कैसे-कैसे बाहुबलियों के लिए भी याद करते हैं लेकिन क्या आपको मालूम है कि रेणु की प्रसिद्धि देश-विदेश तक फैलने से पहले शास्त्रीय संगीत के लिए इस जिले को पहचाना जाता था..।

कभी यहां देश के दिग्गज संगीतकारों को जमावड़ा होता था और फिजा में ख्याल से लेकर ठुमरी घुली रहती थी। शास्त्रीय संगीत की नामचीन हस्तियां पूर्णिया शहर से कुछ ही दूरी पर स्थित चंपानगर के एक रजवाड़े में इकट्ठा होते थे। ताज्जुब की बात यह है कि रजवाड़े का ही एक सदस्य शास्त्रीय संगीत में ही रमा रहता था। वह शख्स थे राजकुमार श्यामानंद सिंह। शिकार, बिलियर्डस के शौकीन कुमार साहब हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में समान पकड़ रखते थे। कृष्ण से जुडे गीतों को उन्होंने एक अलग अंदाज प्रस्तुत किया, जो अब काफी कम ही सुनने को मिलता है।

कुमार साहब के संगीत के बारे में यदि जानना है तो पंडित जसराज से पूछिए। एकबार उनके द्वारा गाए बंदिश को सुनने के बाद पंडित जसराज रो पड़े थे। जसराज ने कहा था- आह, मेरे पास भी ऐसा जादू होता। उन्हें अभी भी संगीत साधक द्वारिकानाथ शरण में तेरी..के लिए याद करते हैं। हाल ही में दिल्ली में भी उनके एक दीवाने से मुलाकात हुई थी। करीब 23 साल के इस युवा को मैंने खुद कुमार साहब की बंदिशों में डूबे देखा है।

कुमार साहब से जुड़ी एक कहानी है। जब जाकिर हुसैन बिहार के राज्यपाल थे तो उन्होंने उनकी आवाज सुनी तो उन्होंने कहा कि कुमार साहब की आवाज में ईश्वर विराजते हैं। संगीत के प्रमुख घरानों में एक आगरा घराना से ताल्लुक रखने वाले कुमार साहब ने संगीत की विधिवत शिक्षा उस्ताद भीष्मदेव चटोपाद्याय से ली थी।

कुमार साहब ने सावर्जनिक स्थलों पर काफी कम कार्यक्रम पेश किया। जिसकारण उनके संगीत के बारे में लोगों को काफी कम जानाकरी है। ऑल इंडिया रेडियो के आर्काइव में उनके गाए गीत हैं लेकिन वो भी आसानी से उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं।

संगीत के इस महान अराधक के बारे में कई कहानियां आज भी सुनी जा सकती है। निजी जीवन में बेहद सख्त माने जाने वाले कुमार साहब संगीत के मामले उतने ही नरम थे।

अब बात पते की, पूर्णिया को पप्पू यादव के नाम से पहचाने वाले लोग इस जिले की नब्ज को पहचाने में भूल करते हैं। इसमें कहीं न कहीं पूर्णिया की भी कुछ गलतियां हैं, मसलन घर की मुर्गी दाल बराबर वाली कहावत। मीडिया भी इस इलाके को ठीक ढंग से पेश नहीं कर पाया है।

ऐसी बात नहीं है कि यहां केवल बंदूक की राजनीति ही हावी है। आज भी यहां कलात्मक कार्यों का बोलबाला है। शास्त्रीय संगीत, लोकसंगीत, मिथिला पेंटिंग, बांस और बेंत की सुंदर वस्तुएं जैसी तमाम कलाएं यहां अपने बल पर जीवित है लेकिन ये सभी चीजें लंबी और चमकदार लाल बत्तियों वाली गाड़ियों के काफिले में कहीं छूट सी जाती है।

शहर में शास्त्रीय संगीत की धमक का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बच्चों की एक बड़ी टोली यहां लगन से शास्त्रीय संगीत सीख रही है।

अंकुर इसका उदाहरण है। यहां आपको अंकुर जैसे कई बच्चे शास्त्रीय संगीत में रमे मिल जाएंगे लेकिन क्या ऐसे बच्चे राष्ट्रीय मंच तक पहुंच पाएंगे..संगीत घरानाओं के बड़े नामों और उनके शिष्यों के बीच क्या पूर्णिया के संगीत साधक अपनी जगह बना पाएंगे॥? इसके लिए संचार से लेकर अन्य सभी माध्यमों को आगे आने की जरूरत है। मैं इसे नैनो की तरह लखटकिया सवाल मानता हूं।

3 comments:

Dipti said...

समस्या यही है कि बद का नाम ज़्यादा होता है...
दीप्ति

sushant jha said...

गिरीन्द्रजी बढ़ियां...दरअसल हमें ऐसी चीजों को प्रकाशित करना होगा जो छुपी हुई हैं या जिनकों मंच नहीं मिल रहा...देश का हर इलाका अपने आप में कई संभावनाओं को समेटे हुए हैं लेकिन उनका नाम तभी आता है जब कोई नकारात्मक खबर हो।

Ishwaranand said...

Mujhe fakr hai is baat ka ki maine aise yug me janm liya jisme Rajkumar Shyamanand Singh jaise mahan sangitagya hue. Ek ajeeb sammohan sa mahsus karta tha unke sangeet me jise shabdon me bayan karna asambhav hai. Unki ruhaani aawaz jab sunanewalon ke ruh ko sparsh karti thi to logon ke munh se "wah" ki jagah "aah" aur ankh se aansu nikal padte the.Ye baaten kanon suni nahin aankhon dekhi hai.Kash!us pal ko roke rakhane ki takat mujhamen hoti.Aaj ke dusre bade kalakaron ko main sunta hun we bhi nipun hain,achhi tanen aur laykaari sunane ko milti hai,par us madhur aur maadak undaz ki talaash ab bhi jaari hai. Unka vyaktitva bhi itna aakarshak tha ki jis mehfil men hote the logon ki nazar unke chehre ko chhod kahin tikti hi nahin thi.Log taktaki lagaaye unhen nihaarte aur unki baaten sunkar wibhor hote rehte the,mano amritvarsha ho rahi ho.Unke liye unhin ke gaaye ek bhajan ki pankti yaad aa rahi hai-"bisarat nahi madanmohan ki mand mand muskaan".Sach!unke gaye itne varsh beet gaye par unki yaaden dhoomil nahin hui. Kisi charchaa me unke dwaara kahi baat duhrata hun-"daiyaa kahan gaye wo log." Ishwaranand