भले ही टेलीविजन स्क्रीन पर आमिर खान और बॉलीवुड के कई सितारे हमें बता रहे हैं कि वोट करो, लेकिन अभी भी कई लोगों के लिए चुनाव में वोट देने के मतलब दारु की बोतल, भरपेट भोजन और नोट है।
कल रात अपने शहर पूर्णिया में रहने वाले दोस्त से बात हो रही थी। उसने जो बताया, वह तो मतदान की एक अलग ही व्याख्या है। पूर्णिया में बसे सिर पर मैला ढोने वाले सैकड़ों दलित परिवारों की एक बस्ती है। इस बस्ती में रहने वाले परिवारों की नजर में लोकतंत्र में वोट का मतलब है एक दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात। न प्रत्याशी से वास्ता और न ही विकास के लिए वोट डालने का मकसद।
एक बोतल दारु, भरपेट भोजन और चंद रुपये में लोकतंत्र की इबादत वोट का अर्थ बदल जाता है। दोस्त ने बताया कि अशिक्षा व गरीबी के दलदल में फंसे भंगियों की बस्ती का वोट के लिए भी प्रत्याशियों के बीच रस्साकशी होती है। वोट के जुगाड़ में लगे प्रत्याशियों में मनमाफिक खर्च करने वाले के पाले में सामूहिक मतदान कर दिया जाता है।
यहां यह भी कहना जायज होगा कि मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने की सरकार चाहे जो भी दंभ भर रही हो मगर सरजमीं पर इसकी हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है। मेरा खुद का अनुभव है कि सरकार से कई गुणा अधिक इस क्षेत्र में कई गैर सरकारी सगंठन काम कर रहे हैं। सुलभ इंटरनेशनल इसका उदाहऱण है लेकिन अफसोस सुलभ को रेणु की धरती की हकीकत का पता नहीं है। वैसे यह संगठन राजस्थान के अलवर में संतोषजनक काम कर रहा है।
सच्चाई यह भी है कि पूर्णिया से दूर दिल्ली में बैठकर और वो भी दोस्त से बतियाकर रपट लिखने में संतोष नहीं होता है। क्या पेट के लिए मैला उठाने की विवशता को लोकतंत्र नहीं बदल सकता....
पूर्णिया के जिला समाहरणालय के पीछे की बस्ती में रहने वाले सैकड़ों भंगी परिवार हो या फिर बाड़ीहाट मुहल्ले में रहने वाले दर्जनों सर पर मैला उठाने वाले परिवार, इन सभी के लिए तो एक दिन की मौज मस्ती महज एक वोट में हासिल हो जाए, तो क्या हर्ज है ।
1 comment:
मैला ढोने की प्रथा बदलना, भाई ये सब फालतू के काम हैं और वोट के दिनों में ही याद आते हैं।
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