लोग कह रहे हैं मंदी की मार जारी है। अभी जगजीत सिंह की एक गजल याद आ रही है.
आपके लिए -
अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूं
अपने खेतों में बिछड़ने की सजा पाता हूं
कितनी मंहगाई है कि बाजार से कुछ लाता हूं
अपने बच्चों में उसे बांटकर शर्माता हूं
अपनी नींदों का लहूं पोंछने की कोशिश में
जागते-जागते थक जाता हूं
सो जाता हूं
अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूं
1 comment:
ये लो हमारी तरफ से, कहीं पढा था। आप भी पढिए।
घर जाकर बहुत रोऐ माँ-बाप अकेले में
सस्ता नही था कोई खिलौना उस मेले में।
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