Saturday, January 03, 2009

नए साल में मुखौटा उतारकर ताजा हवा फेफड़ों में भरें

नए साल की शुरुआत ब्लॉग पर किस पोस्ट से करूँ , इसी सोच में डूबा जा रहा था. इस बार किसी को हैप्पी न्यू इयर भी नहीं कहा अपने अमित भाईजी को भी sms नहीं किया ..जिन्हें हर साल मैं सबसे पहले sms भेजा करता था ...कई लोगो की याद आ रही है.
खासकर अपने शहर की. यहाँ की आपाधापी में बहुत कुछ जैसे पीछे रह गया है. यही सब सोच रहा था की रेणु सामने आ गये, और कहा - मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर अपने गांव चला जाता हूं। ज्यादा सोचो मत तुम भी यही करो और मुखौटा उतारकर ताजा हवा अपने रोगग्रस्त फेफड़ों में ले लो।

अचानक आखें खुली, सुबह हो गयी थी और मुझे ऑफिस जाने की जल्दी थी .... जो अभी मेरी सच्चाई है...

खैर आप पढिये- धर्मयुग के 1 नवंबर,1964 में प्रकाशित तथा आत्मपरिचय में संकलित फणीश्वर नाथ रेणु की इन पंक्तियों को और इस महानगरीय उठापटक जीवनशैली से हटकर अपने गांव में कुछ ही देर के लिए ही सही, लेकिन लौटने का प्रयास कीजिए- (हो सकता है आप में से कइयों ने इसे कई बार पढ़ा भी होगा तो भी एक बार मेरे सुर में सुर मिला ही लीजिए)")

मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर अपने गांव चला जाता हूं। जहां मैं घुटने से ऊपर धोती या तहमद उठा कर – फटी गंजी पहने – गांव की गलियों में, खेतों – मैदानों में घूमता रहता हूं। मुखौटा उतारकर ताजा हवा अपने रोगग्रस्त फेफड़ों में भरता हूं। सूरज की आंच में अंग – प्रत्यंग को सेकता हूं (जो, हमारे गांव में लोग बांस की झाड़ियों में या खुले मैदान में – मुक्तकच्छ होकर निबटते हैं न।)।

झमाझम बरखा में दौड़ – दौड़कर नहाता हूं। कमर – भर कीचड़ में घुसकर पुरइन (कमल) और कोका (कोकनद) के फूल लोढ़ता हूं। धनखेतों से लौटती हुई धानियों (सुंदरियों) से ठिठोली करता हूं, गीत गाता हूं –“ओहे धानी, कादै छ काहेला है – जाइब बंगला- लाइब मोहनमाला तोहरे पिन्हाएला हे – ए - ...।“

फिर, शहर आते समय भद्रता का मुखोस ओढ़ लेता हूं। मैंने रात में भैंस चराई है। रात में पानी में भीगकर मछली का शिकार किया है। जाड़े की रात में, तीसी के फुलाए हुए खेतों में बटेर फंसाया है॥। बारातों में पगड़ी बांधकर घोड़ा दौड़ाया है। गांव के लोगो के साथ मिलकर लाठी से बाघ का शिकार किया है।। (बोलो हो औराही – हिंगना के पंचो॥ क्या मैं झूठ कह रहा हूं॥ ) और...और...और... औराही – हिंगना के लोग ही बताएँगे कि मैंने क्या-क्या किया है। किन्तु जो भी किया है, (सु-कर्म कु-कर्म) उनकी स्मृतियां मेरी पूंजी हैं।

कहानी या उपन्यास लिखते समय थकावट महसूस होती है अथवा कहीं उलझ जाता हूं तो कोई ग्राम - गीत गुनगुनाने लगता हूं।.........इस समय एक एक बरसाती गीत गाने को जी मचल रहा है-

“भादव मास भयंकर रतिया-या-या, पिया परदेस गेल धड़के मोर छतिया-या-या, कैसे धीर धरौं मन धीरा- आसिन मास नयन ढरै नीरा-आ-आ-आ.....................................।“

(इन पंक्तियों को जब भी पढ़ता हूं, मन अपने गांव की धूल उड़ाती सड़कों पर सरपट दौड़ने लगता है॥। फिर लौटकर आने का मन नहीं करता है..)

2 comments:

Rakesh Kumar Singh said...

बहुत सुंदर. मुझे भी अंगिका भाषा में गायी जाने वाली कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं, जिन्‍हें बचपन में पूर्णियां प्रवास के दौरान हॉस्‍टल में सुना था. याद करने की कोशिश कर रहा हूं:


हे गे छौरि, हे गे छौरि कथि ले कनई छी गे
जैबो पोठिया, लानबौ भोटिया तोरे सुतैबौ गे
...

हे गे छौरि, हे गे छौरि कथि ले कनई छी गे
जैबो पूरनिया, लैबो हरमोनिया, तोरे नचैबो गे ...

Unknown said...

बहुत सुंदर.....अच्छा लगा पढ़ कर...