Monday, June 02, 2008

सपने हकीकत में बदल रहे हैं


भारतीय समाज में आज भी बहुत से लोग हैं जिनके सपने दूसरों के लिए होते हैं। अक्सर यह सपना समाज के उत्थान से जुड़ा होता है। यह आम सपनों से साफ अलग और मौलिक होता है। इसे पूरा करना सरल नहीं होता है, लगातार कठिन राहों से गुजरना पड़ता है। लेकिन ,ये सपने हकिकत में बदल जाएं तो सच मानिए समाज का कुछ भला जरूर होगा।

कुछ ऐसा ही हो रहा है राजस्थान के अरवल जिले में स्थित हिजुड़ी गेट की मलिन बस्तियों में। सालों से मैला ढोने वाली हिजुड़ी गेट बस्ती में रहने वाली महिलाएं अब लघु उद्योग से जुड़कर सम्मानपूवर्क जीवन यापन कर रही हैं। गैरसरकारी संगठन सुलभ इंटरनेशनल इस क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने की मुहिम में जुटा हुआ है।

खास बात यह है कि इस मुहिम में महिलाओं के सर्वांगिण विकास पर बल दिया जा रहा है। कभी सिर पर मैला ढोने वाली यहां की महिलाएं अब समाज में एक बदलाव की बयार लाने का प्रयास कर रही हैं। इन्हीं महिलाओं में से एक है शंकुतला चोमड़। खुद शंकुतला के शब्दों में "हवाई जहाज मेरे लिए सपना था, आसमां में उड़ते और उसकी तेज आवाज को ही मैं जानती थी, लेकिन अब यह हकीकत है मेरे लिए। मैं पहली बार हवाई जहाज से पटना गई और हां अब अमेरिका जाउंगी। "

एक अदम्य साहस शंकुतला के साथ अब जुड़ता चला जा रहा है। शंकुतला की बोली से लेकर सिर उठाकर चलने तक में आप वह विश्वास देख सकते हैं जो अभी तक आप संपन्न व शिक्षित महिलाओं में देख पाते हैं। शंकुतला के जीवन में इस तरह के बदलाव को देखना भले ही हमारे-आपके लिए सामान्य सी बात हो लेकिन खुद उसके लिए यहां तक का सफर कांटो भरा रहा। बकौल शंकुतला, "जब मैंने निर्णय लिया कि अब मैं सिर पर मैला नहीं उठाउंगी तो लोग मेरा मजाक उड़ाते थे। कहते थे कि तू मैडम बनेगी क्या? अपने घर में लोग कहते थे कि सुलभ तुम्हारे लिए क्या करेगा। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी और आज चार सालों में मेरी जिंदगी साफ बदल गई है......। "

दिल्ली के पांच सितारा होटलों में पत्रकारों से रूबरू होना हो या फिर रैंप पर मॉडलों के संग कदम से कदम मिलाकर चलना, अब शंकुतला के पांव न थमते हैं और न थकते हैं। मैला ढोने के स्थान पर अब वह अचांर, पापड़, सिलाई-कढ़ाई, बूटिक आदि का काम कर रही है और एवज में सुलभ इन्हें दो हजार रुपये मासिक वेतन दे रहा है। चार बच्चों की मां शंकुतला का चहकते हुए कहना, " मैं खुद अपना नाम लिखूं" एक ऐसा सवाल है जिसे आज देश की हर महिला कहना चाहेगी। बर्शेते उसे पढ़ाया-लिखाया जाए। देश के हर कोने में ऐसी कई महिलाएं हैं जो अब शंकुतला बनना चाहती हैं। बस इसके लिए सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक विन्देश्वर पाठक की तरह अदम्य इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।

मशहूर पटकथा लेखक और गीतकार प्रसून जोशी ने फिल्म रंग दे बसंती में एक किरदार के मुख से एक वजनदार बात कहलवाई है – " जिंदगी जीने के दो तरीके होते हैं, एक जैसा चल रहा चलने दो, सहते जाओ॥ या फिर बदलने का बीड़ा उठाओ....।" विन्देश्वर पाठक ने बदलने का बीड़ा उठाया और आज अलवर की महिलाएं एक अलग जिंदगी में खुद का ढाल रहीं हैं। विन्देश्वर पाठक इन महिलाओं को प्रींसेस ऑफ अलवर कहते हैं। उनका कहना है कि बेटियां हर किसी के लिए राजकुमारी ही होती है, इसी कारण वह भी इन महिलाओं को राजकुमारी मानते हैं।

शंकुताल चोमड़ भी एक राजकुमारी हीं हैं और वह उस बड़े बदलाव की कड़ी है जो समाज को सबल बनाने में आने वाले समय में सहायक सिद्ध हो सकेगी। शंकुतला ने कहा कि अब वह आर्थिक रूप से भी सबल बनने की मुहिम में जुट गई हैं। उन्होंने कहा, " अब मैं बचत करना सीख रही हूं। हर महीने पांच सौ रुपये बचा रही हूं।" बचत के अलावा शंकुतला बरसों से सोए अरमानों को भी जिंदा करने में जुटी हैं। खुद शंकुतला के शब्दों में, "मैंने सुलभ से अपनी पहली कमाई से टेलीविजन खरीदा, जानते हैं, उस दिन मैं खुशी से सो नहीं पाई॥आखिर बरसों से मैं इस चीज को अपने आंगन में लाना चाहती थी।" वह कहती है कि अब वह अपनी कमाई से एक फ्रीज घर में लाएगी।

न जाने ऐसे कई अरमान जो आज तक केवल मन के अंदर उबाल मारते थे अब अरवल की हिजुड़ी गेट बस्ती में हकीकत में बदल रही है। शंकुतला अपने भविष्य को लेकर भी सोच रही है। उसने कहा कि वह आने वाले कुछ वर्षों में अपना खुद का व्यापार करेगी। सिलाई-कढ़ाई के कामों में अपना समय बिताना वह अच्छा समझती हैं। अपने बच्चों के बारे में वह कहती है, " सभी को पढ़ाना है॥ पढ़कर वे खुद के पांव पर खड़े हो सकते हैं। पढ़ाई का क्या महत्व होता है वह मैं अब समझ रही हूं। मेरे चारों बच्चे खूब पढ़ेंगे।" लंबी बातचीत के दौरान एक चीज जो शंकुतला बार-बार कहती थी वह यह कि "मेरे में अब हिम्मत आ गई है " इस बात की ओर इशारा करता है कि बदलाव न केवल भौतिक सुविधाओं से जुड़ा होता है बल्कि वह व्यक्ति में एक अलग प्रकार के साहस का भी संचार करता है। इसी को सामने लाने का प्रयास कर रही शंकुतला चोमड़। इस महिला में काम के अलावा पढ़ाई के प्रति भी खास ललक मौजूद है। वह खुद दिन में चार से पांच घंटे समय निकाल कर पढ़ रही है। साथ ही अपने पति को भी साक्षर बनाने के लिए प्रयासरत है।

शंकतुला के माता-पिता गाजियाबाद में रहते हैं। उन्होंने कहा कि जब से वह मैला ढोने काम छोड़ दी है तो मां-पिता भी काफी खुश हैं। सुलभ से भी शंकुतला की एक गुजारिश है। वह कहती है, "जिस तरह सर (विन्देश्वर पाठक) हमारी जिंदगी को बदल रहे हैं कुछ वैसा ही हमारे पति के लिए भी करें। ताकि घर में सभी बदलते भारत के साथ कदम से कदम बढ़ा सकें।" पुराने दिनों को याद कर शंकुतला भावुक हो जाती है। वह कहती है, " हे भगवान, भूलकर भी वह समय लौटकर किसी की जिंदगी में नहीं आए, मैं उन दिनों को अब भूलना चाहती हूं। लेकिन हां, उसे मैं अपने दिल में याद रखना चाहती हूं क्योंकि आज जो कुछ भी मैं बोल पा रही हूं उसके पीछे मेरी जिंदगी के साथ लंबी लड़ाई ही है।" दार्शनिक अंदाज में वह कहती है कि सुख-दुख का जीवन में तो आना-जाना लगा ही रहता है भैया...। वह पहले महीने में मुश्किल से दो सौ रुपये अर्जित कर पाती थी। बदले में घर-घर जाकर मैला को सिर पर उठाकर फेंकना पड़ता था। शादी के बाद जब वह अलवर आई तभी से ही वह परिवार के इस पारंपरिक काम में जुट गई थी। वर्ष 2004 में सुलभ द्वारा इस क्षेत्र का दौरा करने के बाद से यहां के लोगों में बदलाव आना शुरू हुआ। फिर क्या था, चार सालों में यहां के लोगों में बड़े बदलाव नजर आने लगे।

स्वच्छता के प्रति एक अलग ही जागरुकता यहां देखने को मिलने लगी। सिर पर मैला ढोने वाली कई महिलाएं आज सुलभ के इस कार्यक्रम से जुड़ती चली जी रही हैं और कारंवा आगे बढ़ता ही चला जा रहा। मात्र एक संस्था के प्रयास ने सामूहिक चेतना लाने का अनोखा प्रयास किया है। शंकुतला जैसी कई औरतें शायद इसी कारण अब खुलकर और विश्वास के साथ बोल पाती हैं। बदलते भारत की यही है सच्ची तस्वीर जिसे बडे़ विज्ञापनों की आवश्यकता नहीं होती है, बस बदलाव के लिए कदम बढ़ाने की आवश्यकता होती है। घर में बिखरी हुई चीजों को सलीके से रखने की आवश्यकता होती है, ठीक शंकुतला चोमड़ की तरह। इसी आशा के साथ कि यह आवाज दूर तलक जाएगी.........



2 comments:

Anonymous said...

सुखद समाचार। एक अच्छा बदलाव। इस बदलाव की हवा चारो तरफ फैले। हमारी शुभकामनाऐ।

आशीष कुमार 'अंशु' said...

अच्छी जानकारी दी आपने गीरिन्द्र भाई