Thursday, March 20, 2008

छुआछूत पर सवाल उठाती फिल्म 'इंडिया अनटच्ड'



जाति व्यवस्था खासकर छुआछूत की समस्या को लेकर बनी फिल्म 'इंडिया अनटच्ड' का प्रदर्शन जब दिल्ली विश्वविद्यालय के ग्वायर हॉल में हुआ तो वहां मौजूद दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच समता मूलक समाज पर बहस छिड़ गई।



फिल्म के विशेष प्रदर्शन के मौके पर फिल्म के निर्देशक स्टालिन के।भी मौजूद थे। यह फिल्म एक घंटे 48 मिनट की है। फिल्म में भारत के अधिकतर हिस्सों में छुआछूत और जाति व्यवस्था के बढ़ते चलन को दिखाया गया है। दिल्ली से लेकर केरल तक पिछड़ी जातियों के साथ होने वाले भेदभाव को स्टालिन ने फिल्म में समेटा है।


भारत के आठ राज्यों और यहां के प्रमुख चार धर्मो में होने वाले भेदभावों पर उन्होंने प्रकाश डाला। फिल्म के बारे में स्टालिन ने कहा, "भारत में आज भी किस प्रकार छुआछूत को माना जा रहा है, मैंने उसे ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मैंने इसके लिए चार वर्षो तक भारत के विभिन्न राज्यों की यात्रा की।"


फिल्म में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था के विभिन्न पक्षों को दिखाया गया है। स्टालिन गुजरात के एक प्रसंग में फिल्म में दिखाते हैं कि कैसे पटेल (सवर्ण) की गाय का दूध स्थानीय बाजार में बिकता है और दलितों की गाय का दूध बाहर के राज्यों में भेज दिया जाता है। दरअसल, स्थानीय लोग दलितों की गायों का दूध नहीं पीते हैं। स्टालिन ने कहा, "ये गुजरात की कॉपरेटिव सोसाइटी की हकीकत है।"


फिल्म में बनारस के एक पंडित को यह कहते दिखाया गया है, "दलितों को शिक्षा प्राप्त करने का कोई हक नहीं है।" इसी प्रकार दक्षिण भारत के मदुरई के एक गांव में ऊंची जाति के घर के सामने से गुजरते वक्त दलितों को अपने चप्पल उतारने पड़ते हैं। इस प्रकार की कई हकीकतों को स्टालिन ने अपनी फिल्म में शामिल किया है।



गौरतलब है कि स्टालिन फिल्म निर्माता-निर्देशक के साथ-साथ एक मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं और जाति व्यवस्था को लेकर उनकी यह दूसरी फिल्म है। दिल्ली विश्वविद्यालय के ग्वायर हॉल छात्र संघ और गैरसरकारी संगठन सफर के तत्वाधान में इस फिल्म का विशेष प्रदर्शन किया गया था।

2 comments:

विनीत कुमार said...

साथी, कई बार लोगों को लगता है कि क्या जाति-पाति की बात लेकर लोग बैठ गए। एक जमाना था जब इन सब चीजों पर बहसें हुआ करती थी, लोग जाति में विश्वास करते थे, अब तो ये बात गई लगती है। लेकिन दो-तीन महीने में ऐसी कोई किताब, रिपोर्ट या फिर फिल्म हाथ लग ही जाती है जिससे गुजरकर लगता है कि क्या वाकई कुछ बदला है और पहले से बेहतर हुआ है।

दिलीप मंडल said...

ग्वायर हॉल में डीयू और जेएनयू के साथियों के साथ वो फिल्म मैंने भी देखी थी। डायरेक्टर की एक टिप्पणी अब भी कान में गूंज रही है कि - "2008 में मैं डीयू में ये फिल्म दिखा पा रहा हूं और खुले आमंत्रण पर सभी लोग इस मिलकर देख रहे हैं, इस पर इंटेलेक्चुअल चर्चा कर रहे हैं, इसलिए ये कहना गलत होगा कि वक्त नहीं बदला है।"

आम तौर पर मुख्यधारा का मीडिया ऐसे बदलाव को देख नहीं पा रहा है या रिपोर्ट नहीं कर पा रहा है। अपराध हम सबका है। यहीं पर वैकल्पिक मीडिया की जरूरत भी रेखांकित होती है, जिसकी एक शानदार कल्पना विनीत कर रहे हैं। हम सबको ऐसे प्रयासों की सफलता की कामना करनी चाहिए।