Thursday, February 22, 2007

कोंकणी कविता रीति-रिवाजों का किला तोड कर.....

रीति-रिवाजों का किला तोड कर मुक्त हुआ
और सुख पाया
छोटी-बडी परंपराओं की
भयानाक भूतनियां
भिन्न भिन्न प्रकार से नाचती थीं
कोई मर गया रोने चलो
कोई पैदा हुआ हंसने चलो
किसी का ब्याह हुआ जल्दी जाकर काम का दिखवा करो
किसी के माथे पर काली मिर्च का लेप लगा
उठो, दौडो उसका हाल चाल पूछो
हमें रिवाज के मुताबिक कोट पहनना चाहिए
वैसी हीं धोती पहननी चहिए
पवित्र वस्त्र ओढ्ना चाहिए
नाते का कोई मर गया
कडा सूतक रखना होगा
सादा पत्र लिखना हो
सप्रेम नमस्कार विनती विशेष लिखना होगा
अगर मैं मंदिर गया तो गाल पीट कर माफी मांगनी होगी
दोस्तो के जन्मदिन पर तोहफे देने होंगे
घर मे कड्की है अमीर होने का दिखावा करना है
इश्वर मे आस्था नही पक्का भक्त होने दावा करना है
पत्नी के पास गले मे फूटी मणी भी नहीं
उसके लिए फूलो का आभूषण खरीदना होगा
कदम-कदम पर परंपराओ के नकाब ओढ्ने चाहिए
सच्चा मनुष्य दफन हो गया हो तो उसे खोद कर
निकालना चाहिए
ऊपरी दिखावा न करें तो समाज -बाहर होना चाहिए
जब मैं ने परंपराओ को छोडा
तभी मैं सुखी हुआ.

4 comments:

ghughutibasuti said...

सही कह रहे हैं आप । कहीं परम्पराओं को मानने में बुराई नहीं है तो मान लो । यदि वे निरर्थक लगती हों तो छोड़ दो । वे मनुष्य के लिए बनी हैं मनुष्य उनके लिए नहीं ।
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com
miredmiragemusings.blogspot.com/

विजय said...

जिस काम में दिल खुशी न महसूस करे... उसे सिर्फ इसलिए करें कि उसे करना है क्योंकि ऐसी रीति है, ऐसा रश्म है... फिर उसे निभाना बिल्कुल बोझ सा लगता है।
महज औपचारिकताएं बंधनों को जन्म देती है जिससे मनुष्य की स्वभाविक स्वच्छन्दता जाती रहती है...
इसलिए आपने सही लिखा है कि दिल और दिमाग के चक्षु खोलकर खुद इन रश्मों को परिभाषित करें।

Monika (Manya) said...

Bilkul sahi kaha hai.. ye khokhali rashmen.. reeti-riwaaz .. sirf bandhan hain.. inme dam ghutataa hai.. is aawaran ko utaar phenkane me hi mukti hai.. aur khud ki sahi pehchaan hai..

Anonymous said...

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