मैं जब मर जाउंगा,
तो मेरे अंगो को लेकर राजनीति मत करना.
निठारी के बच्चो की तरह्.
मैं पहले ही बता दू
कि मेरे अंगो के साथ तुम क्या-क्या कर सकते हो-
मेरी आंखे देना उस व्यक्ति को
जिसने कभी भी उगते सुरज को नही देखा हो,
जिसने किसी बच्चे के चेहरे या
किसी औरत की आंखो में झांकर प्यार न खोजा हो.
मेरा दिल उसे देना
जिसने अपने दिल के सिवा
किसी दिल को न पढा हो..
मेरा खुन उसे देना
जिसको जरुरत हो,
ताकि वह देख सके
अपने खेलते बच्चो को.
अरे भाई ले जाओ
मेरी हड्डीयां,
मेरे गुर्दे,
एक-एक भाग मेरे शरीर के.
और दे देना उस अंपग बच्चे को
ताकि वह चल सके अपने पैरों पर्,
अगर हिन्दु हो तो जला देना मुझे ..
मेरे खोखले शरीर को,
गर हो मुसलमान तो दफन कर देना,
दबा देना
मेरे शरीर को,
मेरे दोष को,
मेरी कमजोरीयों को,
मेरे सारे षडयंत्र को
जो मैने पाले थे
खुद अपने दोस्तो के लिए..
इतना कुछ करने के बाद भी
यदि याद करना चाहो मुझे
तो बोलना दो ही मिठे बोल ...
उसे जिसे जरुरत् है तुम्हारी.
यकिन मानो
यदि इतना सब तुम कर लोगे तो मैं जिंदा रहुंगा....
7 comments:
निठारी कांड को बहुत ही मार्मिक रूप से शब्दों में पिरोया आपने
आश्चर्य है इस जैसे और भी कांड सामने आ रहे हैं।
मार्मिक चित्रण.
ह्रदय के भावों को ज्यों का त्यों रख दिया है आपने ।
बधाई !!
रीतेश गुप्ता
आपकी कविता पढी. ये बहुत ही अच्छा है कि आपने मौजूं विषय पर कलम चलाने की कोशिश की है. कविता अच्छी बन भी पडी है. लेकिन एक बात मं समझना चाहता हूं कि निठारी जैसे शातिर मसलों का समाधान क्या इतने भावनात्मक तरीक़े से संभव है?
कविता के मर्म में हीं इसकी मार्मिकता छुपी
है और यही सुंदरता है...जनाब तुमने तो
संदेश दे डाला जो आज तक सरकार नहीं
दे पायी॥इस कविता को मात्र यहाँ नहीं
National Awareness Programme में लाया जाना चाहिए.very-2 good u hv a spark...
कविता के मर्म में हीं इसकी मार्मिकता छुपी
है और यही सुंदरता है...जनाब तुमने तो
संदेश दे डाला जो आज तक सरकार नहीं
दे पायी॥इस कविता को मात्र यहाँ नहीं
National Awareness Programme में लाया जाना चाहिए.very-2 good u hv a spark...
वाह गिरीन्द्र जी !
मेरी जिन्दगी भी बेचकर
अपनी आंखों में डालने को
हो सके तो कुछ पानी खरीद लेना....
......
चले थे वो मुझे मारने हाथों में कटार लिए
हमने तो हाजिर कर दी जिंदगी अपनी।
--- विजय
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