मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Thursday, January 04, 2007
ये कैसा महापर्व -मेरे खुदा
ये कैसा पर्व
मैं जब गया ओखला तो रस्ते पर
काटी जा रही थी मासुम बकरियां और भैंसे-
हाय कैसा था वह आलम
क्या यही है जश्न का तरीका
खुदा क्या सोचता होगा....
हमे तो विरोध करने के लिये बोलती जुबान दी गयी है..
लेकिन उस मासुम को तो सिवाय मिमयाने को कुछ नही आता है..
मैं सहम गया था उन गलियों में
आज भी भैंसे मेरे नज़रो के सामने रो रही है.
ये कैसा महापर्व -मेरे खुदा
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4 comments:
I think u r so sentimental but expression comes through the words.Mujhe thoda saa Lagaa ki kavita choti hai achaanak hi khatam ho gayi.
खुदा खुद भी तो बेजुबां है अगर जुबां होती तो विरोध करता इसका।
शायद खुदा की बेजुबांनी की वजह ईकोलाजिकल बैलेंस हो, मगर है तो दुखदायी. :(
सच में दुखद है।
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