Tuesday, December 26, 2006

साहित्यकार यदि सत्ता के क़रीब रहेगा तो अच्छा नहीं लिख सकता.

वरवर की प्रिय कविता

कसाई का बयान
एक
मैं बेचता हूँ माँस चाहे आप मुझे कसाई कहें
यह आपकी इच्छा मैं मारता हूँ
हर रोज़ पशुओं को काटकर उनका माँस बेचता हूँ.
रक्त देखकर मैं नहीं चौंकता
अपने कसाई होने का अर्थ
उस दिन समझा था मैं
बस गया मेरी आँखों में उस मासूम का ख़ून
फँस गई है मेरे गले में उसकी आवाज़
रोज़ करता हूँ इन्हीं हाथों से पशुओं का वध
लेकिन गला नहीं अभी तक मेरे मन पर ख़ून का दाग़
उस दिन सड़क, पर नहीं.मेरे मन पर फैल गया था
उस बच्चे का ख़ून...क्या तुम इसे धो पाओगे? तुम्हारे इंसानी हाथ
.क्या बोझा हल्का कर पाएँगे मेरे दिल का.
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उसके जिस्म पर टूट गई थीं छह लाठियाँ
क़ातिल के कांधे से बरस रहा था
उसके जिस्म पर बंदूक का कुंदा लगातार.
नली टकरा रही थी सिपाहियों के जबड़ों से और वह सड़क पर चित पड़ा थाशव की भाँति.
एक ने कहा-‘यह चाकू मार देगा’और सुनते ही दूसरे सिपाही ने दाग़ दी गोली
उसके मुठभेड़ में मारे जाने की ख़बरें छपी थीं दूसरे दिन.
मैं पशुओं से हरता हूँ प्राणक्रोध और घृणा से नहीं मैं बेचता हूँ माँसपर स्वयं को नहीं.
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हज़ार ज़ख्मों से रिस रहा था रक्त हज़ारों भीगे नेत्र देख रहे थे
मेरे टोहे पर पड़ी बकरी की भाँति
.वह नहीं चीखा था
उसकी आँखों में नहीं थे अश्रु भी जाने क्यों क्या वह देख रहा था आने वाले कल को.

4 comments:

Anonymous said...

एक भयानक सच्चाई को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करने पर बधाई।

Anonymous said...

kaphi aacha laga ..

डॅा. व्योम said...

बहुत सुन्दर कविता के लिए बधाई
डॉ॰ जगदीश व्योम
www.hindisahitya.blogspot.com

अनुनाद सिंह said...

आपके विचार, गद्य और पद्य दोनो में, सार्थक लगे। अभिनन्दन! हिन्दी चिट्ठाजगत में।