मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
Sunday, September 24, 2006
GANDHI BABA..
मुन्नाभाई का बिंदास अंदाज़ लोगों को नेताओं के भाषण से ज़्यादा पसंद आ रहा है
गाँधीगिरी की चर्चा आजकल लाखों लोगों के ज़ुबान पर है और इसके पीछे है मुन्नाभाई ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फ़िल्म.
एक सशक्त संदेश जिसमें महात्मा गाँधी को आम आदमी और आज की पीढ़ी के लिए चालू बंबईया हिंदी में पेश किया गया है.
फ़िल्म देखकर बाहर निकलते हुए बच्चे-बूढ़े सभी एक ही गीत गुनगुनाते हैं
'बंदे में था दम, वंदे मातरम्'.
गाँधीवाद या गाँधीगिरी अपनाने का नया अंदाज़ नई पीढ़ी को ख़ास तौर आकर्षित कर रहा है.
खाने की बाबत कहा जाए तो ये समझिए कि गाँधी को अब तक पकवान बना कर परोसा जाता था. पहली बार चाट-पापड़ी की तरह परोसा गया है तो लोग ज़्यादा ग्रहण कर रहे हैं
21 साल की एयर होस्टेस कुमुदिनी ने बताया, "किताबों में पढ़ने या नेताओं का भाषण सुनने से गांधी में रूचि पैदा होना मुश्किल है. यहाँ साबित करके दिखाया गया है कि जब प्यार से काम चल सकता है तो लड़ाई की ज़रूरत नहीं पड़ती. इसमें हम सबके लिए संदेश है
60 वर्षीय बरुना मैत्रा कहती हैं उन्हें गाँधी के संदेश को हँसी-हँसी में बताना बहुत अच्छा लगा
.
मुन्नाभाई गैंगस्टर को गाँधीवाद की धुन चढ़ती है रेडियो जॉकी जान्हवी (विद्या बालन) के दीवानेपन में. एक रेडियो प्रतियोगिता में भाग लेने और जान्हवी के साथ स्टूडियो में मेहमान बनने के चक्कर में मुन्नाभाई घंटों गाँधी के बारे में पढ़ते हैं और वहीं से शुरू होती है उनकी गाँधीगिरी.
जान्हवी का दिल जीतने के साथ ही साथ मुन्नाभाई जान्हवी के साथ एक लोकप्रिय रेडियो जॉकी बन जाते हैं और गाँधी के दो मूलमंत्र सत्य और अहिंसा का पाठ लोगों को पढ़ाने में लग जाते हैं.
गाँधीगिरी मुन्नाभाई पर इस क़दर छा जाती है कि उन्हें चारों ओर गाँधी दिखाई देते हैं जिसकी वजह डॉक्टर ‘कैमिकल इंबैलेंस’ बताते हैं और जिसे मुन्नाभाई अपनी ज़ुबान में ‘‘कैमिकल लोचा’’ कहते हैं.
तो 'गाँधी का लोचा' दर्शकों में इतना लोकप्रिय हो रहा है कि गोद में नवजात बच्चे दबाए माताएँ और छड़ी लेकर बूढ़े तक सभी 20-30 किलोमीटर यात्रा कर ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ देखने सिनेमा हॉल में जा रहे हैं. फ़िल्म रिलीज़ होने के लगभग एक हफ़्ते बाद भी टिकट मिलना मुश्किल हो रहा है.
सिर्फ आम आदमी ही नहीं गाँधीवादियों का मानना है कि गांधी की प्रासंगिकता सार्वभौमिक है और सामान्य आदमी के रूप में गाँधी को प्रस्तुत करना क़ाबिले तारीफ़ है.
चाट-पापड़ी
गाँधीजी के परपोते तुषार गाँधी कहते हैं, "जिस तरह से लोगों की प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं उससे लगता है कि लोगों को पहली बार महात्मा गाँधी को सामान्य रूप में देखना अच्छा लग रहा है. गाँधी जी एक साधारण आदमी थे लेकिन अपने कर्मों से महान बने यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है."
वे उदाहरण देते हैं, "खाने की बाबत कहा जाए तो ये समझिए कि गाँधी को अब तक पकवान बना कर परोसा जाता था. पहली बार चाट-पापड़ी की तरह परोसा गया है तो लोग ज़्यादा ग्रहण कर रहे हैं."
गाँधी का खुमार या गाँधीगिरी लोगों पर इस क़दर छाई है कि यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि 'लगे रहो मुन्नाभाई' नई पीढ़ी के लिए गाँधीवाद के प्रति प्रेरणा का नया स्रोत बनकर आई है.
जहाँ तक फ़िल्म के निर्माता का सवाल है उनके लिए ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि मुन्नाभाई ने गाँधीजी को हिट बनाया है या गाँधीगिरी ने मुन्नाभाई को.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment