
आँख किसी की न रोई...
कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर !
मुझे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है क्योंकि इस तरह एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद उससे कुछ बेहतर हो सड़क के उस तरफ। -केदारनाथ सिंह
वेब की दुनिया सुहानी होती है, पर इसमें बांधने की शक्ति काफी कम होती है। कोई भी किसी वेबसाइट या ब्लॉग पर जाकर कितनी देर ठहर पाएगा, यह कहना कठिन है। यह निर्भर करता है वेबसाइट/ब्लॉग्स के कंटेट्स पर। हम और आप हर रोज औसतन 20-22 वेबसाइटों का चक्कर लगाते हैं पर कितने पर हम ठहर पाते हैं..यह सवाल मुझे हर रोज तंग करता है। खासकर जब आप भी कोई ब्लॉग चलाते हैं या फिर पोर्टल मोडरेट कर रहे हों।
ऐसे सवाल के जवाब के लिए मैं हिंदी और अंग्रेजी के कुछ वेबसाइटों और ब्लॉगों पर नजर दौड़ाता रहता हूं। अभी हाल ही में रूरल रिपोर्टर नामक ब्लॉग पर गया था, यकिन मानिए यह तस्वीरों का ब्लॉग मुझे आधे घंटे तक अपने पेजों में उलझाए रहा। हर तस्वीर ढेर सारे सवाल दागते हैं। इसके अलावा पी. साईंनाथ की कुछ रपटें भी कमाल की है। कुछ ऐसा ही कभी-कभार मोहल्ला लाइव डॉट कॉम भी करता है। पिछले हफ्ते मिहिर पंड्या ने कमीने फिल्म के संगीत की समीक्षा लिखी थी। मैं इसे मोहल्ला लाइव के तमाम रपटों में सबसे बेहतरीन मानता हूं। शनिवार सुबह मैं भी इस वेबसाइट से चिपका रहा। मिहिर ने संगीत की समीक्षा की नई परंपरा की शुरुआत कर दी। इसके अलावा भी यह वेबसाइट कांटेट के मामले में धनी है।
विस्फोट डॉट कॉम भी कंटेट के मामले में एक नए तेवर लिए हुए है लेकिन कभी-कभी लंबे पोस्ट ऊबाने भी लगते हैं। दरअसल वेब की दुनिया में हाथ-पांव मारने वाले हम जैसे लोग लंबे पोस्टों को सहजता से नहीं ले पाते हैं। हम इन वेबसाइटों पर जब जाते हैं तो इच्छा यही रहती है कि कम से कम समय में हम सभी चीजों पर नजर दौड़ा लें क्योंकि हमारे पास कई विकल्प हैं जहां भी हमें चक्कर लगाना होता है। हाशिया ब्लॉग को भी मैं इसी नजर से देखता हूं। इसे कंटेट के मामले में आप सबसे धनी वेबसाइट मान सकते हैं, जहां आपको दिमागी भूख को मिटाने के लिए तमाम तरह के व्यंजन मिल जाएंगे।
हम पोर्टलों / ब्लॉगों के जरिए वेब को खँगालने वाले लोग इन अड्डों पर ठहरना चाहते हैं, ठीक उन कॉफी हाउसों की तरह जहां के टेबल पर लोग घंटो बैठे रह जाते हैं क्योंकि वहां बातों ही बातों में कई बात निकल जाती है। हम हिंदी की तमाम वेबसाइटों और ब्लॉगों से यही अपेक्षा रखते हैं कि साइबर स्पेस में कॉफी हाउस वाले दिन लौट आएं। हमे साइबर वर्ल्ड में यह कहने का मौका नहीं मिले-
"इस गली, उस गली
इस नगर उस नगर
जाएं भी तो कहां,.........."
ब्लॉग पर पोस्ट करने के बाद जब हम प्रतिक्रियाओं पर नजर डालते हैं तो कई नयी बातें तो कई बड़े सवाल हमारे सामने खड़े हो जाते हैं। हाल ही में जब एक शहर जहां से हम आए थे... लिखा तो कुछ प्रतिक्रियाएं आईं। जहां संदीप ने लिखा-
गांव/शहर की याद आनी चाहिए फॉर अ चेंज जाइए, घूम-घाम आइए किसी माल से बियर-शियर पीके तरोताजा होइए। क्या गांव-तांव का रोना लेकर बैठ गए आप, साला आफिस के एसी में भी पसीना छूट गया..... ।
वही सुशांत ने एक सवाल दाग दिया, जिसे मैंन पोस्ट के अंत में छेडा था। उन्होंने पूछा- बदलावों के बारे में विस्तार से लिखिए...क्या-क्या हो रहा है...।
मैं यही आकर रूक गया। शहर को देखने का नजरिया हर किसी का अलग होता है लेकिन शहर के मूल में हो रहे बदलाव समान हैं। वह चाहे मेरा शहर पूर्णिया हो या फिर दरभंगा, कानपुर या इलाहाबाद। बदलाव हर जगह हुए और भी हो रहे हैं।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि बदलाव बेहद जरूरी है लेकिन इन बदलावों के बीच शहर अपनी पहचान को नहीं खो दे, नहीं तो मुश्किल का अहसास होता है। मैंने पूर्णिया में हुए बदलावों को नजदीक से देखा है। साल दर साल यह शहर बदलता जा रहा। हर बार जब इस शहर से अपने शहर जाता हूं तो कुछ ऐसा जरूर देखने को मिलता है जिसे मैंने पहले नहीं देखा था। सच कहूं कुछ बदलावों को देखकर मन खुश भी होता है। लेकिन जब बदलाव के नाम पर शहर की पुरानी आदत मिटते देखता हूं तो दुख होता है।
सकारात्मक बदलाव के संबंध में मेरा फोकस बाजार पर है। मुझे बाजार में हुए बदलाव सबसे रोचक लगते हैं। आप किसी भी शहर के मुख्य बाजार में शाम में घूम आइए, शहर अपनी छाप आप पर जरूर छोड़ेगा। एक वर्ष में यह छाप एक अलग अंदाज में आपको नजर आएगा। दुकानों के साइनबोर्ड से लेकर सब्जी बाजार की आवाज सब कुछ बदल जाते हैं। यहां आप भाषाई बदलाव से रूबरू हो सकेंगे। मछली बेचने से लेकर सब्जी बेचने के अंदाज में दिल्ली और लुधियाना के बाजारों का स्पष्ट आभाश मिलेगा।
सबसे मजा मुझे अपने शहर के बाजार में रविवार दोपहर को आता है। कपड़े के बड़े दुकानों के बाहर फेरी लगाकर कपड़े बेचते ठेले वाले को देखकर जनपथ की तस्वीर साफ हो जाती है। दरअसल रविवार को ये ब़डे दुकान बंद रहते हैं। ये सारे नए ढंग बाजार में गत चार-पांच वर्षों में आए हैं। समय देकर इस पर अध्ययन करने में काफी मजा आ सकता है, और साथ में ऑडियो और वीडियो विजुअल्स का सहारा लें तो मजा दोगुना हो सकता है।
रही बात उन परिवर्तनों की, जिससे दुख होता है। उसमें शहर की बोली और लोकसंस्कृति शामिल है। लोककला तो जैसे तस्वीर से गायब ही हो चली है। शहर का विस्तार जरूर हुआ लेकिन इससे शहर के नक्शे से वे बस्ती गायब हो गए जहां पहले वे लोग रहा करते थे, जिनके पास विदापत नाच से लेकर लोकगीतों का खजाना था, अब वहां इमारतें बन गई। धरती -जमीन कहलाने लगी। दरअसल आप जबतक धरती कहेंगे तबतक उसे बेच नहीं पाएंगे लेकिन जमीन शब्द जेहन और बोली में आते ही धन हम पर हावी हो जाता है।
रेणु ने अपनी कृतियों में कभी जमीन नहीं कहा, वे हमेशा भूमि, धरती कहा करते थे....लेकिन अब उनकी भूमि-जमीन कहलाने लगी है, जिसके बारे में वे कहा करते थे-इसमें फूल भी है शूल भी, धूल भी है, गुलाल भी, कीचड़ भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरुपता भी। दरअसल यही है बदलाव, मूल में बदलाव।