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Monday, June 30, 2014

कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर ! जाएगा कहाँ ?

जीवन एक कहानी है। कहानी में सुख भी है और दुख भी। सुख को भी जीना है और दुख को भी समेटना है। मेरी कहानी अभी दुख का पाठ पढ़ा रही है। जीवन में यह भी देखना होगा, हमने कभी सोचा नहीं था। बाबूजी की तबियत अचानक खराब होती है और हम एक ही झटके में टूट जाते हैं। डाक्टर ने कहा कि बाबूजी को ब्रेन हेमरेज हुआ है और हमारी जिंदगी अस्पताल के आईसीयू में सिमट जाती है। जीवन में अक्सर अचानक ही सबकुछ होता है।

जीवन के इस पड़ाव पर मुझे बहुत कुछ नया अनुभव हो रहा है। यह अनुभव मुझे कबीर की उस वाणी की ओर खींच रही है, जिसमें वे कहते हैं- अनुभव गावै सो गीता। लोगबाग को समझ रहा हूं, उस मुहावरे को समझ रहा हूं, जिसमें कहा गया है कि लोग उगते सूरज को ही सलाम करते हैं.....। भंवर में साथ बहुत कम लोग साथ देते हैं। मैं उस भंवर में भी जमीन तलाश रहा हूं। धूमिल की वह पंक्ति बार-बार दोहराता हूं, जिसमें वो कहते हैं-  हम अपने सम्बन्धों में इस तरह पिट चुके हैं , जैसे एक ग़लत मात्रा ने शब्दों को पीट दिया है ।

सब बातों को जानकर भी मन का तार टूटता जा रहा है। दरअसल अज्ञात को नहीं देख पाने की वजह से हमारा मन विचलित होने लगता है। सच कहूं तो इस वक्त ज्ञान की भाषा मुझे कड़वी लग रही है। अज्ञानी बने रहने की कला सिखना चाहता हूं। वैसे यह जान रहा हूं कि ऐसे वक्त में खुद का सहारा ही हमें मजबूत रखता है। बचपन में हम रोते थे लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते जाते हैं रोने की आदत भी जाने लगती है। आंख के जरिए मन को साफ करने की वह कला भी हम भूल जाते हैं। कई बार लगता है कि यदि हम रो देते हैं तो मन हल्का हो जाता है लेकिन मन को कौन समझाए ...मन की सीमा रेखा भी अब टूटने से रही।

देखिए न ये सब लिखते हुए ऐसा लग रहा है जैसे मन को मैं समझा रहा हूं, उसे भरम में रखने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन सच से भला कौन मुंह मोड़ सका है। जीवन का गणित जटिल होकर भी सरल होता है। जोड़-तोड़, गुणा भाग से नाता बनता जाता है और हम समझने लगते हैं कि अब हम ज्ञानी हो गए हैं। कॉलेज के दिनों में गीतों से अद्भूत लगाव हुआ था। जीवन के हर मोड़ को गीतों के जरिए समझने की कोशिश करता था, वह दौर अलग था। आज देखिए न, फिर से फिल्म गाइड का वह गीत सुनने को जी कर रहा है, जिसमें भरम की व्याख्या की गई है- कहते हैं ज्ञानीदुनिया है फ़ानीपानी पे लिखी लिखाईहै सबकी देखी, है सबकी जानी/ हाथ किसी के ना आई………

इन सबके बीच मेघ में बादल मंडरा रहे हैं, बारिश की उम्मीद है। किसानी करते हुए बादलों से अजीब तरह का लगाव हो गया है। बादलों को समझने बुझने लगा हूं। धान रोपनी के वक्त खेत से दूर हूं, बाबूजी को  देख रहा हूं, जिसने जीवन भर खेत से इश्क किया, खेत को जीवन समझा और जीवन को खुशहाल भी खेत से ही बनाया लेकिन आज वो बिस्तर पर लेटे हैं खेत से दूर। शायद यही जीवन है और सत्य भी। मैं फिर गीत के बोल मे खोने लगा हूं और इस पल चुप-चाप टाइप करने लगा हूं-

“…दर्द से तेरे कोई न तड़पा
आँख किसी की न रोई...
कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर ! 
जाएगा कहाँ ?......” 

Sunday, June 22, 2014

बाबूजी की आंखें

अब लिखा नहीं जाता है,
दिन और रात बस अब
खोना अच्छा लगता है
जबसे बाबूजी को अस्पताल से घर लाया हूं
लगता है
लिखना और जीना दोनों ही
बहुत अलग चीज है
जो लिख देते हैं
वो सच में
बड़ी खूबसूरत दुनिया देखते हैं
और जो लिख नहीं पाते
वो देखते हैं...भोगते हैं
जीवन के उतार-चढाव को
आज जाने कितने दिनों बाद
जब कुछ लिखने का मन किया तो
मुक्तिबोध याद आए
रविवार की इस तपती दुपहरी में
उनकी कविता याद आई
बिस्तर पर लेटे
टूक-टूक देख रहे बाबूजी
और बाबूजी की दो आंखें
आंखों में आंसू .....
पिछले साल ही उनकी आंखों में
लगी थी दो लैंस..
दिल्ली की किसी अस्पताल में
आशा के साथ कि
अब आंखों में आंसू नहीं आएंगे
पर किसको पता था कि
आंखों में आंसू आना तो
नियम है जीवन का
दुख और सुख का व्याकरण
सचमुच में बड़ा जटील है
अब जान गया कि जीवन एक
लंबी कविता है
जिसमें कहानी भी है
उपन्यास भी...
मेरे लिए फिलहाल
जीवन की कहानी अमीर खुसरो की वह लाईन है
जिसमें वे कहते हैं- बहुत कठिन है डगर पनघट की.....

Saturday, May 31, 2014

इस मोड़ से जाते है, कुछ सुस्त कदम रस्ते...

लंबे अंतराल के बाद आज लिखने बैठा हूं। वक्त इतनी तेज रफ्तार से बढ़ रहा है कि अंतराल का अहसास भी नहीं होता है। व्यस्तता दिन पर दिन बढ़ती चली जा रही है और इन व्यस्तताओं के बीच जाने कितना कुछ नया सीखने को भी मिल रहा है।

मुल्क में हुए आमचुनाव के बाद बहुतों के लिए बहुत कुछ बदल गया है तो बहुतों के लिए सबकुछ वैसा ही है जैसा पहले था। ऐसा लिखते हुए लगता है मानो दर्शन की बातें करना लगा हूं लेकिन सत्य से भला कौन पीछे हटा है और कौन हटने की हिम्मत करेगा।

सत्य को स्वीकारना भी साहस का काम है, ऐसा साहस सबके नसीब में कहां। गाम के मुसहर टोले में शाम ढलते ही लोगबाग के जीवन को देखता हूं तो उस साहस का अहसास होने लगता है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, उससे जीवन से आनंद हासिल करने का पाठ पढ़ने को मिले तो लगता है अरे, हम तो नाहक ही परेशान थे अबतक। ये सबकुछ तो माया है।

कबीर का लिखा मन में बजने लगता है- “माया महाठगिनी हम जानी ..निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.....” ठीक उसी पल मन के रास्ते पंडित कुमार गंधर्व की भी आवाज भी कानों में गूंज लगती है- “भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी…..कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी”

कभी कभी लगता है क्या जीवन में कोई कथा संपूर्ण हो पाती है..। इस दौरान मुझे जीवन आंधी के माफिक लगने लगती है, सबकुछ उड़ता नजर आने लगता है। गाम के रामठाकुर स्थान से हारमोनियम की आवाज मध्यम गति से कानों तक पहुंचने लगती है। मैं अपने कमरे में बैठा की-बोर्ड पर खिटिर-पिटिर करने लगता हूं। सबकुछ अनायास ही होने लगता है।

एक अनुभूति होती है, किसी के होने का अहसास होता है। तब पता चलता है कि यह तो अपने होने का अहसास है। प्रसून जोशी का लिखा याद आने लगता है, जिसमें वे कहते हैं- "जब तेरी गली आया, सच तभी नज़र आया, मुझ में ही वो खुशबू थी, जिससे तूने मिलवाया...”

गाम में एक दिन किसी से बात हो रही थी तो उसके भीतर का भय मुझे सामने दिखने लगा। वह भय मौत को लेकर थी। मौत शायद सबसे बड़ी पहेली है, हम-सब उस पहेली के मोहरे हैं। जब गाम का पलटन ऋषि मौत और भय की बातें कर रहा था तो मुझे फ़िल्म 'आनंद' में कैंसर से जूझ रहे राजेश खन्ना और फिल्म में डाक्टर का किरदार निभा रहे अमिताभ बच्चन का संवाद याद आने लगता है, जिसमें राजेश खन्ना कहते हैं, "मौत तो एक पल है. मैं उस एक पल के डर से आने वाले लाखों पल का लुत्फ़ क्यों ना उठाऊं. जब तक ज़िंदा हूं, मरा नहीं. जब मर गया, तो साला मैं ही नहीं."

आज की रात लोक-परलोक की ऐसी कई बातें करने का मन कर रहा है। जीवन की राह पर हर राहगीर से बातें करने का मन कर रहा है। नदीम कासमी की बात याद आ रही है- रात भारी सही कटेगी जरुर, दिन कड़ा था मगर गुजर के रहा...। गुलजार भी याद आने लगे हैं ..उनका लिखा मन में गूंजने लगा है- 
"एक राह अकेली सी, रुकती हैं ना चलती है
ये सोच के बैठी हूँ, एक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुचती है
इस मोड़ से जाते है.. .."

Monday, August 10, 2009

इस गली, उस गली /इस नगर उस नगर /जाएं भी तो कहां,..........

वेब की दुनिया सुहानी होती है, पर इसमें बांधने की शक्ति काफी कम होती है। कोई भी किसी वेबसाइट या ब्लॉग पर जाकर कितनी देर ठहर पाएगा, यह कहना कठिन है। यह निर्भर करता है वेबसाइट/ब्लॉग्स के कंटेट्स पर। हम और आप हर रोज औसतन 20-22 वेबसाइटों का चक्कर लगाते हैं पर कितने पर हम ठहर पाते हैं..यह सवाल मुझे हर रोज तंग करता है। खासकर जब आप भी कोई ब्लॉग चलाते हैं या फिर पोर्टल मोडरेट कर रहे हों।

ऐसे सवाल के जवाब के लिए मैं हिंदी और अंग्रेजी के कुछ वेबसाइटों और ब्लॉगों पर नजर दौड़ाता रहता हूं। अभी हाल ही में रूरल रिपोर्टर नामक ब्लॉग पर गया था, यकिन मानिए यह तस्वीरों का ब्लॉग मुझे आधे घंटे तक अपने पेजों में उलझाए रहा। हर तस्वीर ढेर सारे सवाल दागते हैं। इसके अलावा पी. साईंनाथ की कुछ रपटें भी कमाल की है। कुछ ऐसा ही कभी-कभार मोहल्ला लाइव डॉट कॉम भी करता है। पिछले हफ्ते मिहिर पंड्या ने कमीने फिल्म के संगीत की समीक्षा लिखी थी। मैं इसे मोहल्ला लाइव के तमाम रपटों में सबसे बेहतरीन मानता हूं। शनिवार सुबह मैं भी इस वेबसाइट से चिपका रहा। मिहिर ने संगीत की समीक्षा की नई परंपरा की शुरुआत कर दी। इसके अलावा भी यह वेबसाइट कांटेट के मामले में धनी है।

विस्फोट डॉट कॉम भी कंटेट के मामले में एक नए तेवर लिए हुए है लेकिन कभी-कभी लंबे पोस्ट ऊबाने भी लगते हैं। दरअसल वेब की दुनिया में हाथ-पांव मारने वाले हम जैसे लोग लंबे पोस्टों को सहजता से नहीं ले पाते हैं। हम इन वेबसाइटों पर जब जाते हैं तो इच्छा यही रहती है कि कम से कम समय में हम सभी चीजों पर नजर दौड़ा लें क्योंकि हमारे पास कई विकल्प हैं जहां भी हमें चक्कर लगाना होता है। हाशिया ब्लॉग को भी मैं इसी नजर से देखता हूं। इसे कंटेट के मामले में आप सबसे धनी वेबसाइट मान सकते हैं, जहां आपको दिमागी भूख को मिटाने के लिए तमाम तरह के व्यंजन मिल जाएंगे।

हम पोर्टलों / ब्लॉगों के जरिए वेब को खँगालने वाले लोग इन अड्डों पर ठहरना चाहते हैं, ठीक उन कॉफी हाउसों की तरह जहां के टेबल पर लोग घंटो बैठे रह जाते हैं क्योंकि वहां बातों ही बातों में कई बात निकल जाती है। हम हिंदी की तमाम वेबसाइटों और ब्लॉगों से यही अपेक्षा रखते हैं कि साइबर स्‍पेस में कॉफी हाउस वाले दिन लौट आएं। हमे साइबर वर्ल्ड में यह कहने का मौका नहीं मिले-

"इस गली, उस गली

इस नगर उस नगर

जाएं भी तो कहां,.........."

Friday, May 15, 2009

शहर के मूल में हो रहे बदलावों का लेखा-जोखा

ब्लॉग पर पोस्ट करने के बाद जब हम प्रतिक्रियाओं पर नजर डालते हैं तो कई नयी बातें तो कई बड़े सवाल हमारे सामने खड़े हो जाते हैं। हाल ही में जब एक शहर जहां से हम आए थे... लिखा तो कुछ प्रतिक्रियाएं आईं। जहां संदीप ने लिखा-

गांव/शहर की याद आनी चाहिए फॉर अ चेंज जाइए, घूम-घाम आइए किसी माल से बियर-शियर पीके तरोताजा होइए। क्या गांव-तांव का रोना लेकर बैठ गए आप, साला आफिस के एसी में भी पसीना छूट गया.....


वही सुशांत ने एक सवाल दाग दिया, जिसे मैंन पोस्ट के अंत में छेडा था। उन्होंने पूछा- बदलावों के बारे में विस्तार से लिखिए...क्या-क्या हो रहा है...

मैं यही आकर रूक गया। शहर को देखने का नजरिया हर किसी का अलग होता है लेकिन शहर के मूल में हो रहे बदलाव समान हैं। वह चाहे मेरा शहर पूर्णिया हो या फिर दरभंगा, कानपुर या इलाहाबाद। बदलाव हर जगह हुए और भी हो रहे हैं।

जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि बदलाव बेहद जरूरी है लेकिन इन बदलावों के बीच शहर अपनी पहचान को नहीं खो दे, नहीं तो मुश्किल का अहसास होता है। मैंने पूर्णिया में हुए बदलावों को नजदीक से देखा है। साल दर साल यह शहर बदलता जा रहा। हर बार जब इस शहर से अपने शहर जाता हूं तो कुछ ऐसा जरूर देखने को मिलता है जिसे मैंने पहले नहीं देखा था। सच कहूं कुछ बदलावों को देखकर मन खुश भी होता है। लेकिन जब बदलाव के नाम पर शहर की पुरानी आदत मिटते देखता हूं तो दुख होता है।

सकारात्मक बदलाव के संबंध में मेरा फोकस बाजार पर है। मुझे बाजार में हुए बदलाव सबसे रोचक लगते हैं। आप किसी भी शहर के मुख्य बाजार में शाम में घूम आइए, शहर अपनी छाप आप पर जरूर छोड़ेगा। एक वर्ष में यह छाप एक अलग अंदाज में आपको नजर आएगा। दुकानों के साइनबोर्ड से लेकर सब्जी बाजार की आवाज सब कुछ बदल जाते हैं। यहां आप भाषाई बदलाव से रूबरू हो सकेंगे। मछली बेचने से लेकर सब्जी बेचने के अंदाज में दिल्ली और लुधियाना के बाजारों का स्पष्ट आभाश मिलेगा।

सबसे मजा मुझे अपने शहर के बाजार में रविवार दोपहर को आता है। कपड़े के बड़े दुकानों के बाहर फेरी लगाकर कपड़े बेचते ठेले वाले को देखकर जनपथ की तस्वीर साफ हो जाती है। दरअसल रविवार को ये ब़डे दुकान बंद रहते हैं। ये सारे नए ढंग बाजार में गत चार-पांच वर्षों में आए हैं। समय देकर इस पर अध्ययन करने में काफी मजा आ सकता है, और साथ में ऑडियो और वीडियो विजुअल्स का सहारा लें तो मजा दोगुना हो सकता है।

रही बात उन परिवर्तनों की, जिससे दुख होता है। उसमें शहर की बोली और लोकसंस्कृति शामिल है। लोककला तो जैसे तस्वीर से गायब ही हो चली है। शहर का विस्तार जरूर हुआ लेकिन इससे शहर के नक्शे से वे बस्ती गायब हो गए जहां पहले वे लोग रहा करते थे, जिनके पास विदापत नाच से लेकर लोकगीतों का खजाना था, अब वहां इमारतें बन गई। धरती -जमीन कहलाने लगी। दरअसल आप जबतक धरती कहेंगे तबतक उसे बेच नहीं पाएंगे लेकिन जमीन शब्द जेहन और बोली में आते ही धन हम पर हावी हो जाता है।

रेणु ने अपनी कृतियों में कभी जमीन नहीं कहा, वे हमेशा भूमि, धरती कहा करते थे....लेकिन अब उनकी भूमि-जमीन कहलाने लगी है, जिसके बारे में वे कहा करते थे-इसमें फूल भी है शूल भी, धूल भी है, गुलाल भी, कीचड़ भी है चंदन भी, सुंदरता भी है कुरुपता भी। दरअसल यही है बदलाव, मूल में बदलाव।

Wednesday, May 13, 2009

एक शहर जहां से हम आए थे...

हर शहर कुछ कहता है और फिर पूछ ही लेता है- यहां कौन रहता है। मैं यहां अपने शहर में डूबे इंसान की बात कर रहा हूं। हम जब दूर होते हैं अपने शहर से तो उसकी सबसे अधिक याद आती है। तब हम यह नहीं सोचते कि आखिर हम क्यों निकले थे अपने शहर से। यदि खुद में डूब कर देखें तो पता चलता है कि अपने शहर से निकलने के बाद एक नया शहर आप में समां जाता है और हम-आप उसी के हो जाते हैं।

मिट्टी ग्लोबल होती जा रही है। ऐसी बात नहीं कि अपना शहर उस शहर से अलग है जहां अभी हम ठिकाना बनाए हुए हैं। लोग-बाग अब वहां भी वैसे नहीं रहे, जैसा आपने शहर को छोड़ते वक्त महसूस किया था। बदला है तो केवल बाजार। यह सच है और अच्छा भी की जो चीजें, जो सुविधाएं महानगरों में आपको मिल रही है वह आपको अपने शहर में आसानी से मिल जाती है।

बडे-बड़े बोर्डों से पटा शहर, घरों के ऊपर मोबाइल कंपनियों के लहरहाते टॉवर आपको एक बाजारू शहर से मिलाता है। हमें इससे कोई दिक्कत नहीं है कि अपना शहर अब सो कॉल्ड बड़े शहरों से कदम ताल मिला रहा है लेकिन इसमें उसकी पहचान गुम होकर रह जाए तो फिर मुश्किल का अहसास होता है।

मैं थोड़ा लोकल हो रहा हूं, मुझे अपने शहर की याद आ रही है। लंबे समय से दूर रहने के बाद मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है। पता नहीं सभी के साथ ऐसा होता है कि नहीं। अनुराग कश्यप की बोली में कहूं तो इमोशनल अत्याचार कर रहा हूं (भले ही इसका कोई मतलब न हो), पर अपना शहर अपना होता है। जहां तक पहचान गुम होने वाली बात है तो वह किसी शहर के मूल में हो रहे बदलाव पर निर्भर करता है।

मैं यहां अपने शहर पूर्णिया के मूल में हुए बदलावों का जिक्र कर सकता हूं। इसे आप आम बदलाव कह सकते हैं जो हर जगह हुआ। कुछ चीजें साफ बदल जाती है। मसलन मेरे शहर के जलेबी और कचौरी पर भी बर्गर-सेंडवीच का जादू चल गया है। बोली-बानगी में बांग्ला-मैथिली की चहक गायब होती जा रही है और चौक की शाम बदल गई है। हम-आप बस इन बदलावों के गवाह बनते जा रहे हैं।

Sunday, January 25, 2009

जो बस खरीद ले एक झंडा......

नोएडा मोड़ पर गाड़ी रूकती है
बत्ती लाल होती है, मिनटों में हरी हो जाती है।
गाड़ी फिर आगे बढ़ जाती है, पर
मन वहीं थम जाता है।
कई चेहरे एक साथ याद आते हैं
दिन अकले रह जाता और
रात भी अकेली गुजर जाती है।
मैं उन चेहरों को याद करना चाहता हूं
जिसे नोएडा मोड़ पर देखा था।
हाथ में तिरंगा लिए छोटे बच्चे
बस वही याद रह जाता है
गणतंत्र लेकिन लगता है धनतंत्र
पतली सी शर्ट, हवा भी बहती है
लेकिन तिरंगे को लिए वो छोटा बच्चा
अपने ग्राहकों को खोज रहा है
जो बस खरीद ले एक झंडा......

Wednesday, December 03, 2008

सूना-सूना जग लगे....शहर के उजाले में पसरा अंधेरा....



अभी-अभी शिप्रा मॉल से आया हूं। सच कहूं, मुंबई हमलों के बाद पहली दफे किसी मॉल में जाना हुआ। नवंबर 13 और 14 को भी गया था, लेकिन आज की शाम बेहद उदासी भरी रही। अक्सर अपने दोस्तों के साथ मॉल में सच कहूं- तो आवारागर्दी करता रहा हूं, कभी यहां तो कभी वहां, निकलते ही किसी बार में हम बैठ जाया करते थे.....लेकिन आज ऐसा कुछ भी करने का जी नहीं कर रहा है।

दरअसल, आज सुबह ऑफिस में एनडीटीवी देख रहा था। परिमल कुमार की रिपोर्ट देखा, जिसमें कहा जा रहा था कि दिल्ली में लोग कैसे मॉल और अन्य शापिंग सेंटर से दूरी बनाने लगे हैं। सुबह की रिपोर्ट के बाद मन बनाया था कि आज किसी मॉल में जाऊंगा।

शाम लगभग साढ़े छह बजे के करीब हम अपने दोस्तों के साथ शिप्रा मॉल में इधर-उधर घूम रहे थे। भीड़ तो नहीं के बराबर नजर आई। सच कहूं तो मैं अक्सर मॉल के कुछ स्थानों पर खुद को असहज महसूस करता हूं, मसलन स्वचालित सीढ़ीयों और फिसलन भरे फर्श पर। लेकिन आज मैं बेहद शांत और सहज महसूस कर रहा था। सोच रहा था क्या ऐसा ही मुंबई में पिछले बुधवार को लोग महसूस कर रहे होंगे, जब आतंकवादी अंधाधुंध गोलियां बरसा रहे थे।

रवीश के कस्बे पे आज उनकी कविता पढ़ने और बुधवार रात के बाद लगातार मंबई हमलों की खबरों से घिरे रहने के बाद से मन में यही सवाल उठ रहे थे, जैसा रवीश ने कहा है-


मैं आराम से पड़ा रहूंगा कहीं पर

किसी स्टेशन या किसी मॉल के बीचों बीच

ख़ून से लथपथ, आंखें बाहर निकलीं होंगी

पर्स में अपनों की तस्वीरों के नीचे दोस्तों के पते

मिलेंगे और सरकारी नोट एटीएम की दो चार रसीदें होंगी..........


अविनाश की पोस्ट भी याद आ रही है, जिसमें उन्होंने अंत में लिखा है-

पिछले तीन दिनों तक मुंबई में जो हुआ - हम एक बार भी नहीं रोये थे। बल्कि कई बार किसी न किसी बात पर ठठा कर हंसे ....................
मॉल से आने के बाद भावुक हो गया हूं। हमने बुधवार की रात और आतंकी तांडव में अपने सगे लगभग 200 को गंवाया है। आज देश भर में लोग उन्हीं की यादों में मोमबत्तियां जला रहे हैं। मयूर विहार फेज-1 में अपने दोस्त के यहां हूं, यहां भी कुछ लोग मोमबत्तियां हाथों में लिए दिखे। अभी-अभी बाबूजी का फोन आया, उन्होंने बताया कि हमारे शहर पूर्णिया में भी मोहल्ले में लोग मोमबत्तियां लिए दिख रहे हैं। मानो बाबूजी लाइव रिपोर्टिंग कर रहे थे। उनकी आवाज में अजीब लग रही थी मुझे। उन्होंने कहा कि चार मोमबत्तियां उन्होंने बरामदे पर जला कर रखी है, वे अकेले

क्या समवेत आवाजों को हमारे हुक्मरान सुन पा रहे हैं, सोनिया गांधी ने उड़ी (जम्मू कश्मीर) में आज चुनावी सभा में कहा था- आतंकवाद का मुंहतोड़ जवाब देगा भारत.....पता नहीं वह मुंहतोड़ किस मुख से कह रही होंगी और कहते वक्त क्या उन्हें आत्मग्लानि का अहसास हुआ होगा......

ढेर सवाल हैं, फिर माफी मांगता हूं,,,,,मैं विषयांतर होते जा रहा हूं।