Tuesday, April 18, 2023

रात और पेड़- पौधों की बात

इस मौसम की रात बड़ी अलग होती है। शाम ढलते ही अहाते में खड़ा हर पेड़, हर छोटा पौधा कुछ न कुछ सुनाता है। अभी कुछ टिकोले गिरने की आवाज़ सुनाई दी, धप्प! 

नीम का किशोरवय पेड़ रात में इस कदर लगता है, मानो तैयार होकर कहीं निकलना हो। दिन भर की तपती गरमी के बाद हल्की सी हवा चली है, ऐसे में नीम की पत्तियाँ हिलती दिख रही है, मानो किसी ने बाल में कंघी कर दी हो! 
फूलबाड़ी में सबसे अधिक इठलाती है बेली। इसे शाम से पहले चाहिए पेट भर पानी! प्यास मिट जाने के बाद शाम ढलते ही अहाते को खुशबू देने का काम बेली ही करती है। इस फूल की पत्तियाँ भी कम मोहक नहीं होती, मोटी लेकिन पान के छोटे पत्ते की तरह। फूल की तो बात ही छोड़िये, एक फूल को बस एक गिलास पानी में रख दीजिये! 

उधर, कटहल का पेड़ मजबूती से खड़ा है, आसमां को निहार रहा है। इस पेड़ की टहनी फल के भार से झुकती नहीं है, और भी विनम्र हो जाती है फल देने के बाद। कोई चिड़ियाँ इस पेड़ पर आशियाना बनाई हुई है। 

बगल में ही अमरूद का पेड़ है। इसमें फूल आया है, एकदम दूध की तरह सफेद। दिन में इस पेड़ को गिलहरियाँ घेरे रहती है। शाम से इसे आराम मिला है। अहाते की शांति में यह पेड़ चाँद - तारों से गुफ़्तगू कर रहा है। 

दो बरख पहले अहाते में लीची का पौधा लगाया था, इस साल फल देने की तैयारी में है। चमगादर का एक झुंड साँझ में इसके आसपास मंडराने लगता है। लाल चिटियाँ भी इस पेड़ से चिपकी रहती हैं।

इस मौसम में गाम की रात कई चीजें सिखाती है। मक्का की तैयारी भी कहीं कहीं चल रही है। कहीं किसी मंदिर में लोगबाग गीत गा रहे हैं तो कहीं थ्रेसर से फसल की तैयारी चल रही है। कवि अरुण कमल की कविता ' एकालाप ' की यह पंक्ति याद आ रही है -
" आदमी धान का बिजड़ा तो नहीं 
कि एक खेत से उखाड़ कर दूसरे में रोप दे कोई! "

Friday, March 10, 2023

हम सब निमित्त मात्र हैं!

कई चीजें एक साथ चलती रहती है, संग चलना भी तो कला ही है। चलते चलते जब हम थक जाते हैं तो किनारा पकड़ लेते हैं। कुछ यार-दोस्त वहाँ भी साथ हो जाते हैं। ऐसे बेपरवाह दोस्त सबके नसीब में कहाँ होता है! दरअसल ऐसे दोस्त एकतरफा स्नेह देते रहते हैं, बाहें फैलाये! 

कमरे से बाहर हम सब अपने अपने हिस्से की दुनिया बनाते हैं, जहाँ हम चलते हैं, रुकते हैं। इस दुनिया में अपना पड़ाव होता है, कुछ उस पड़ाव को मंज़िल समझते हैं, कोई उस पड़ाव से आगे निकल जाता है। 
हम सब भीड़ में भीड़ बनकर एक नाटक रचते हैं। कंधों का सहारा लेते हैं और फिर उस कंधे को छोड़, भीड़ में खो जाते हैं। हम सब असल में हर पल नाटक ही तो करते हैं। लेकिन हम इस भरम में रहते हैं कि नाटक अपना है, हम ही इस नाटक के पटकथा लेखक-निर्देशक हैं। जबकि सच तो कुछ और ही होता है। सब कुछ नियति के हाथ का खेला होता है, हम सब निमित्त मात्र हैं! 

अपने हिस्से की दुनिया में हम उम्मीद के बीज बोने की शुरुआत करते हैं, जीने के लिए तमाम तरह के प्रपंच रचते हैं। और एक दिन अचानक नाटक में अपना किरदार पूरा हो जाता है!

यह 'अचानक' ही हम सबका सच है, इसी सच में रंग है, इसी सच में सबकुछ है, कभी सुख ही सुख तो कभी दुख का पहाड़!

आइये, उस 'अचानक' को स्वीकार करते हैं, अपने भीतर के रंग को पहचानने की कोशिश करते हैं, खुद को खुद से रिहा करने की कोशिश करते हैं... 

[ सतीश कौशिक के निधन की खबर सुनने के बाद आत्मलाप]

Saturday, March 04, 2023

रेणु की दुनिया

आज अपने रेणु का जन्मदिन है। फणीश्वरनाथ रेणु, जिन्होंने गाम की बोली-बानी, कथा-कहानी, गीत, चिडियों की आवाज, धान-गेंहू के खेत, इन सभी को शब्दों में पिरोकर हम सबके सामने रख दिया और हम जैसे पाठक उन शब्दों में अपनी दुनिया खोजते रह गए।

रेणु का लिखा जब भी पढ़ता हूँ खुद से बातें करने लगता हूँ। रेणु के बारे में जबसे कुछ ज्यादा  जानने-समझने की इच्छा प्रबल हुई, ठीक उस समय से पूर्णिया जिले की फिजा में धुले उनके किस्से इकट्ठा करने में लग गया। घाट-बाट में रेणु को खोजने लगा।

 

किसानी करने का जब फैसला लिया, तब भी रेणु ही मन में अंचल का राग सुना रहे थे और मैं उस राग में कब ढल गया, पता भी नहीं चला। गाम में रहते हुए रेणु से लगाव और भी बढ़ गया। पिछले एक दशक से लगातार रेणु की माटी-पानी में हूँ। एक दशक में बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव कभी-कभी चौंकाता भी है लेकिन बदलाव तो सत्य है।

 


गाम-घर में जब भी किसी से मिलता हूंँ, बतियाता हूँ तो लगता है कि जैसे रेणु के रिपोतार्ज पलट रहा हूँ। दरअसल रेणुकी जड़े दूर तक गाँव की जिंदगी में पैठ बनाई हुई है। ठीक आँगन के चापाकल पर जमी काई (हरे रंग की, जिस पर पैर रखते ही हम फिसल जाते हैं..) की तरह।

 

रेणु ही थे जिनका मानना था कि ग्राम समुदायों ने तथाकथित अपनी निरीहता के बावजूद विचित्र शक्तियों का उत्सर्जन किया है। वे संथाली गीतों के जरिए कई बातें कहा करते थे। उन्होंने एक संथाली गीत के जरिए कहा था – “जिदन संकु-संगेन , इमिन रेयो-लं सलय-एला। इस गीत का भावानुवाद है- सुख के जीवन के लिए, यहाँ आइए, यहाँ ढूंढ़ना है और पाना है..

 

सच कहूँ तो रेणु की यह पंक्ति मुझे गाम के जाल में उलझाकर रख देती है, मैं इस जाल से बाहर जाना अब नहीं चाहता, आखिर जिस सुख की खोज में हम दरबदर भाग रहे थे, उसका पता तो गाम ही है। आप इसे मेरा भरम मान सकते हैं लेकिन मैं इसे अपने हिस्से का  सच मानता हूँ।

 

हाल ही में पटना स्थित रेणु के आवास की स्थिति का जिक्र कई जगह पढ़ा। कई लोगों ने कहा कि सरकार को रेणु के घर, उनके सामानों को संभालकर रखना चाहिए। ऐसी बातों को सुनकर लगा कि यह सब देखकर रेणु क्या कहते। दरअसल सरकार पर इतना भरोस क्यों किया जाए, क्या समाज का कुछ दायित्व नहीं है। रेणु हम सबके हैं, हम सब मिलकर चाहें तो कुछ भी हो सकता है।

 

खैर, रेणु को पढ़कर ही डायरी और फिल्ड-नोट्स का महत्व समझ पाया। मुझे याद है सराय-सीएसडीएस के स्वतंत्र शोधार्थी के तौर पर जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तब सदन झा सर ने फिल्ड-नोट्स तैयार करते रहने की सलाह दी थी, शायद वे रेणु की बात हम तक पहुँचा रहे थे। पिछले दिनों को याद करता हूँ तो लगता है कि रेणु जीवन में कब आए? 2002 में शायद। कॉलेज और फिर सराय-सीएसडीएस और सदन झा सर। बाबूजी कहते थे कि रेणु को पढ़कर नहीं समझा जा सकता है। रेणु को ग्राम यात्रा के जरिए समझा जा सकता है। टुकड़ों –टुकड़ों में गाम को देखते –भोगते हुए रेणु बस किस्सा कहानी लगेंगे, रेणु को समझने के लिए रेणु का सुरपति राय बनना होगा, लैंस से नहीं, बिन लैंस से गाम घर को देखना होगा।

 

दरअसल रेणु छोटे-छोटे ब्योरों से वातावरण गढ़ने की कला जानते थे। अपने ब्योरों, या कहें फिल्ड नोट्स को वे नाटकीय तफसील देते थे। मक्का की खेती और आलू उपाजकर जब मैं की-बोर्ड पर टिपियाना शुरु करता हूँ तो तब अहसास होता है कि फिल्ड नोट्स को इकट्ठा करना कितना बड़ा काम होता है। और यह भी अहसास होता है कि अनुभव  को लिखना कितना कठिन काम है।

 

हर दिन गाम-घर करते हुए लगता है मानो रेणु की दुनिया आंखों के सामने आ गयी है। दरअसल उनका रचना संसार हमें बेबाक बनाता है, हमें बताता है कि जीवन सरल है, सुगम है, इसमें दिखावे का स्थान नहीं के बराबर है। रेणु अपने पात्रों और परिवेश को साथ-साथ एकाकर करना जानते थे। वे कहते थे कि उनके दोस्तों ने उन्हें काफी कुछ दिया है। वे खुद लिखते हैं-

 

इन स्मृति चित्रों को प्रस्तुत करते समय अपने लगभग एक दर्जन करीबी लंगोटिया यारों की बेतरह याद आ रही है। वे किसानी करते हैं, गाड़ीवानी करते हैं, पहलवानी करते हैं, ठेकेदार है, शिक्षक है, एमएलए हैं, भूतपूर्व क्रांतिकारी और वर्तमानकालीन सर्वोदयी हैं, वकील हैं, मुहर्रिर हैं, चोर और डकैत हैं। वे सभी मेरी रचनाओं को खोज-खोज कर पढ़ते हैं-पढवाकर सुनते हैं और उनमें मेरे जीवन की घटनाओं की छायाएं ढूंढ़ते हैं। कभी-कभी मुझे छेड़कर कहते हैं- साले उस कहानी में वह जो लिखा है, सो वहां वाली बात है न ?” (पांडुलेख से)

रेणु के साहित्य में डूबे रहने की आदत से ही पता चला कि मनुष्य की आकृति, रूप-रंग, बोलचाल, उसके व्यक्तित्व की वास्त्विक कसौटी नहीं है और न ही बड़ी-बड़ी इमारतों से देश की प्रगति मापी जा सकती है। दरअसल बहुत बार जिन्हें हम भद्दा और कुरूप समझते हैं, उनमें मनुष्यता की ऐसी चिनगारी छिपी रहती है, जो भविष्य को भी जगमग कर सके। जैसा मैला-आंचल में रेणु ने बावनदास जैसे चरित्र को पेश किया। उपन्यास में बावनदास की मौत पर रेणु की मार्मिक टिप्पणी की है- दो आजाद देशों की, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंसानियत को बावनदास ने बस दो ही डगों में माप लिया। (मैला आंचल पृष्ठ संख्या 320)

 

आज रेणु के जन्मदिन पर मैं बस यही सब सोच रहा हूँ। कई लोगों की स्मृति मन में उभर गई है, सैकड़ों लोगों की। ऐसे लोग जो चनका रेसीडेंसी आए, जिनके संपर्क से मन समृद्ध हुआ, मन के द्वार खुले। आज वे सब याद आ रहे हैं। ये सब मेरे लिए रेणु के पात्र ही हैं। संपादक, पत्रकार, फोटोग्राफर, गीतकार, सिनेमा बनाने वाले, अभिनेता, गायक, अधिकारी, व्यवसायी, विधायक, मंत्री, किसान....ये सब मेरे लिए रेणु के लिखे पात्र की तरह जीवन में आए और मन में बस गए। एकांत में भी ये लोग ताकत देते हैं। ये सब मेरे लिए परती परिकथा की तरह हैं। परती परिकथा का परानपुर कितने रंग-रूप में रेणु हमारे सामने लाते हैं। गाँव की बदलती हुई छवि को वे लिख देते हैं। वहीं मैला आंचल का मेरीगंज देखिए। हर गांव की अपनी कथा होती है, इतिहास होता है। इतिहास के साथ वर्तमान के जीवन की हलचल को रेणु शब्दों  में गढ़ देते हैं। गाँव की कथा बांचते हुए रेणु देश और काल की छवियां सामने ला देते हैं।

 

एक पाठक  के तौर पर रेणु की कृति 'परती परिकथा' मुझे सबसे अधिक पसंद है। दरअसल इस किताब में ज़िंदगी धड़कती है। इस कथा का हर पात्र मुझे नायक दिखता है। भवेश, सुरपति, मेरी, ताजमनी, जितेंद्र ..इन सबकी अपनी-अपनी दृष्टियां हैं। कथा के भीतर कथा रचने की कला रेणु  के पास थी। कथा में वे मन की परती तोड़ते हैं, यही मुझे खींच लेती है। दरअसल खेती करते हुए हम यही करते हैं, परती तोड़ते हैं।

 

और अंत में रेणु की ही वाणी- दुहाई गांधी बाबा....! गांधी बाबा अकेले क्या करें! देश के हरेक आदमी का कर्त्तव्य है...!


(पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गाँव में आज के ही दिन यानि 4 मार्च 1921 में रेणु का जन्म हुआ था। । मेरे लिए रेणु तन्मयता से किसानी करने वाले लेखक हैं, क्योंकि वे साहित्य में खेती-बाड़ी, फसल, किसानी, गाँव-देहात की बातें करते हैं। )

Tuesday, January 10, 2023

पिता, अब जहाँ हैं!

पिता की स्मृति अपने लिए आत्मालाप है। पिता जीवन में नायक की तरह दाखिल होते हैं, जो दुनिया को देखने का साहस देते हैं, अपनी नज़र से।
पिता जो अब हैं नहीं, लेकिन हैं, आसपास। श्याम तुलसी, कुछ फलदार पेड़, फूल - पत्ती और पानी की दुनिया के बीच वे स्थिर भाव से सबकुछ देखते नज़र आते हैं। उस जगह, जहाँ पिता हैं, वहाँ आम का पौधा, जो अब पेड़ बनने की राह पर आ चुका है, बाँह फैलाये मुस्कुरा रहा है। 

ठंड के इस मौसम में तालाब का पानी दोपहर में बड़ा मायावी दिखता है, दो दिन बाद धूप जो नसीब हुआ है। उधर, धूप उगते ही पक्षियों की चहचहाहट बढ़ सी गई है। 

पिता के जाने के बाद एक भाव आता है, जो कुछ कुछ पिता जैसा ही होता है, संयम का भाव! यह भाव जब आता है, एकांत का अहसास होता है। 

पिता के जाने के बाद स्मृति में ढेर सारी कहानियाँ आती- जाती रहती हैं। उन कहानियों में एक पगडंडी होती है, जिस पर चलते चलते कभी दिख जाते हैं पिता!  भरम ही सही लेकिन वो दिख जाते हैं, मुस्कुराते, कुछ कहते- समझाते... 

पिता अब जहाँ हैं, उसके आसपास हरी- हरी दूब पर दिख जाती है कभी-कभी नीलकंठ चिड़िया। गुजरे आठ सालों में बाबूजी की दुनिया और भी बड़ी हो चली है। वे दिखा रहे हैं ढेर सारी पगडंडियां, जिस पर चलते हुए मिल जाते हैं लोगबाग। 

मान्यताओं से इतर, एक राह होती है, जिसके सहारे हम पहुँचने की कोशिश करते हैं, पिता की स्मृति के समीप। पिता सब देखते हैं, अपने उन दिनों की कहानी सुनाते हैं, जिसमें माटी और माटी से जुड़े लोग होते हैं, हर रंग के... 

Friday, December 02, 2022

एकांत

कई बार लगता है कि एकांत ही आत्मालाप का सबसे बढ़िया रास्ता है, ठीक उस पगडंडी की तरह जिस पर लोगों की लगातार आवाजाही होती रहती है लेकिन असल में वह पगडंडी अकेला होता है। यदि आप गाम घर के पगडंडी को ध्यान से देखेंगे तो उसके एकांत को महसूस कर पाएंगे। 
दोपहर में जब खेत का काम लगभग खत्म हो चुका है, धूप मध्यम हो चुका है, तब चिड़ियों की आवाजें तेज हो गई है। इस मौसम में खेत सज संवर कर तैयार है। तैयार खेत के आल पर गिलहरियों की आवाजाही देखने वाली होती है। चंचल गिलहरियों को देखना असल में आत्मालाप ही है। खेत के आल पर चिड़ियों के बीच गिलहरियों को दौड़ते भागते देखना किसी योग की तरह है। आपको स्थिर मन से इन जीवों की चंचलता को अनुभव करना होगा। 
उधर, खेत से इतर आवासीय परिसर में पहाड़ी मैना और नीलकंठ चिड़ियाँ अपनी   आवाज़ों से जुगलबंदी कर रही है। आसपास कहीं बच्चे खेल कूद रहे हैं। बिजली के खंबे पर गिलहरियाँ कूद फ़ान रही है। आसपास जब इतनी चीजें एक साथ होती दिखती है, तब लगता है असल एकांत यही है, जहाँ हर एक जीव जीने की जुगत में कुछ न कुछ जरूर कर रहा है।

 फूलबारी में सफेद और गुलाबी रंग के गुलाबों पर तितलियाँ मंडरा रही हैं। इन सबको देखते हुए मन में कोई संगीत बजने लगा है, स्मृति में दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस में किसी साल देखे स्पिक मैके की संगीत संध्या की याद ताज़ा हो चली है। हवा में गुलाबी ठंड का अहसास सरोद वादक अयान अली बंगश के करीब पहुंचा रही है। जीवन संगीत का आलाप ही तो है, हर कोई रियाज़ में लगा है, अपने- अपने एकांत में। #ChankaResidency

Friday, October 28, 2022

कथावाचक पंकज त्रिपाठी


मुझे जिस तरह फणीश्वर नाथ रेणु का साहित्य अपनी ओर खींचता है, ठीक उसी तरह अभिनेता पंकज त्रिपाठी की बोली बानी भी आकर्षित करती है। सच यह है कि मुझे किस्सागो लोग सबसे अधिक पसंद हैं। और अपने पंकज त्रिपाठी भैया भी कमाल के किस्सागो हैं। 
उनसे आप जब कोई सवाल पूछेंगे तो जवाब की रेखा ऐसी होगी मानो कोई पेंटिंग हो। वे बातों ही बातों में आपको अपने गाम-घर लेकर चले जायेंगे और फिर खेत-पथार के बीच छोड़ देंगे। उनकी बातों में आसपास के ढेर सारे लोग होते हैं, कई चरित्र नायक होते हैं। वे कहानियों में कहानी खोज लाते हैं। कल्पना की बात करते हैं, आसमां की बात करते हैं। सच पूछिए तो मुझे वे तो खेतिहर अभिनेता लगते हैं, जिसे पता होता है कि धान की खेती कैसे होगी, गेंहू में कितनी पटवन की आवश्यकता है। 

अभी यूट्यूब पर उनकी एक बातचीत सुन रहा था, ऋचा अनिरूद्ध जी के साथ। इसमें वे एक जगह कहते हैं- "हम आम, महुआ, परवल, टमाटर के बीच के अभिनेता हैं। "

उनकी यह बात सुनकर मुझे रेणु की कहानी रसप्रिया को याद आ गई। यह कहानी मुझे बहुत पसंद है। कहानी की शुरुआत इस वाक्य से होती है- “धूल में पड़े कीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नयी झलक झिलमिला गयी- अपरूप –रूप ! ”

दरअसल पंकज भैया का अभिनय और उनका किस्सागो चरित्र सचमुच ‘रेणु की रसप्रिया’ ही है। आप उनकी कोई बातचीत सुन लें, हर बातचीत में गाँव सबसे अधिक मुखर होता है। मुझे वे मुंबई में एक देहाती लगते हैं, जो अपने संग गाम - घर लिए चलता - फिरता रहता है। यदि आप फणीश्वर नाथ रेणु के साहित्य में रुचि रखते हैं तो उनके उपन्यास ' परती परिकथा' से भी परिचित होंगे। इस उपन्यास में एक भिम्मल मामा हैं। रेणु का यह पात्र कोई गैरवाजिब बात नहीं कहता लेकिन, उसको अपने ढंग से सुनाता है। यही पंकज त्रिपाठी भैया का अंदाज है। 

ऋचा जी के कार्यक्रम Zindagi with Richa में पंकज भैया मुझे रेणु के किसी स्केच की तरह लग रहे थे, जिसकी आँखों में गाँव है और आँखें भी कैसी, मानो वह गाँव से निकल रहा हो...

दो घंटे से अधिक लंबी इस बातचीत को सुनते हुए आप अनुभव कर सकते हैं कि पंकज त्रिपाठी भैया असल में कमाल के कथावाचक हैं। एक ऐसा कथावाचक जो पल भर में आपको हँसा देगा तो दूसरे ही पल आपको रूला भी देगा। 

पंकज जी के इस इंटरव्यू को देखते हुए मुझे रेणु जी का लिखा बिदापत-नाच याद आने लगा। बिदापत नाच में रेणु लिखते हैं-
“दुखी - दीन, अभावग्रस्तों ने घड़ी भर हँस-गाकर जी बहला लिया, अपनी जिंदगी पर भी दो-चार व्यंग्य बाण चला दिये, जी हल्का हो गया। अर्धमृत वासनाएं थोड़ी देर के लिए जगीं,  अतृप्त जिंदगी के कुछ क्षण सुख से बीते। मिहनत की कमाई मुट्ठी भर अन्न के साथ-साथ आज इन्हें थोड़ा सा ‘मोहक प्यार’ भी मिलेगा, इसमें संदेह नहीं। आप खोज रहे हैं – आर्ट, टेकनीक और न जाने क्या-क्या और मैं आपसे चलते-चलाते फिर भी अर्ज करता हूँ कि यह महज बिदापत नाच था।”

और फिर चलते-चलते यही कहूंगा कि अभिनय के क्षेत्र में पंकज त्रिपाठी जो भी हों, असल में वे रेणु के स्केच हैं...

Sunday, October 02, 2022

गांधी जी के नाम पर झूठ!

आज बापू की जयंती है। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि हम सबसे अधिक झूठ बापू के ही नाम पर बोलते हैं। अब दो अक्टूबर को आयोजित होने वाले ग्राम सभा को ही लीजिये! यह भी एक झूठ है। जबकि यह लिखते हुए मुझे गांधी जी का यह लिखा याद आ रहा है - "अगर हिंदुस्‍तान के हर एक गांव में कभी पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्‍वीर की सच्‍चाई साबित कर सकूंगा, जिसमें सबसे पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगे या यों कहिए कि न तो कोई पहला होगा, न आखिरी।”

पिछले एक दशक से बिहार के ग्रामीण इलाके में हूँ और सच कह रहा हूँ ' ग्राम सभा' का मजाक देख रहा हूँ। एक कॉपी या कहिये एक रजिस्टर में ग्राम सभा आयोजित होती है और उस कॉपी के पन्ने पर गांधी जयन्ती लिख कर झूठ का व्यापार किया जाता है।दरअसल यहीं से 'गांधी' नाम पर घोटाले की शुरुआत होती है। 

यह कटु सच है कि हम सबकी चुप्पी गांधी जी के नाम पर होने वाले झूठ के व्यापार को बढ़ावा देती आई है। इसके लिए हम सब दोषी हैं क्योंकि यह देश की संसद की बात नहीं, हमारे आपके पंचायत - वार्ड की है। 

आप दिल्ली- पटना या किसी भी सूबे के प्रधान को बड़ी आसानी से दो बात कह देते हैं लेकिन आँख के सामने घर-दुआर - पंचायत में होने वाली गलतियों पर गज़ब की चुप्पी साध लेते हैं। ईमानदारी से कहूँ तो ग्राम सभा में एक चुप्पी रहती है और फिर उस चुप्पी के एवज में लम्बा व्यापार चलता है। 

हमें इस चुप्पी की ही सजा मिल रही है। गांधी हमें अन्याय सहने की बात नहीं कह गए हैं। कम से कम गाँव में चुनाव के जरिये जिन्हें चुनते हैं, उनसे तो सवाल करिये। 

बापू की सादगी से सीखने का यह समय है। निजी तौर पर मुझे उनकी सादगी ही  खिंचती है। कोई आदमी इतनी ऊँचाई पर पहुँचने के बाद इस तरह की सादगी कैसे बनाए रखा होगा, यह एक बड़ा सवाल है। महात्मा ने सादगी कोई दिखाने या नाटक करने के लिए नहीं अपनाई थी। यह उनकी आत्मा से उपजी थी। तो आइये, सादगी से ही सही सवाल करिये! 

#GandhiJayanti