Thursday, April 30, 2015

'खेत में सन्नाटा है, ये ख़ामोशी डराती है..'



'मंगल की रात कोसी के किसानों के लिए अमंगल साबित हुई. पूर्णियों में हम जिस फ़सल को चार महीेने से पाल रहे थे, वो आधे घंटे में चौपट हो गई. मेरी किसानी एक झटके में मेरी आँखों के सामने लुढ़क गई.''
ये कहना है गीरिन्द्र झा का जो पेशे से किसान हैं और बिहार के पूर्णियां ज़िले में रहते हैं.
पूर्णियां उन कई ज़िलों में से है जहां मंगल की रात आए भयंकर तूफ़ान में 65 लोगों की मौत हो गई, लगभग 2000 घायल हैं और लाखों का नुक़सान हुआ है.

गिरिन्द्र झा का दर्द उन्हीं की ज़ुबानी

"मार्च के आख़िरी दिनों में हमने गेहूं को बर्बाद होते देखा था और अप्रैल के आखिरी दिनों में हमने तैयार खड़ी मक्के के फसल को काल के मुख में जाते देखा.
अब रोने के सिवा हमारे पास कोई विकल्प नहीं.
'डर खेत की ख़ामोशी से ..'
खेत में सन्नाटा पसरा है. सच कहूँ तो खेत की इस चुप्पी से डर लग रहा है.
फसल से हमें उम्मीदें थीं. फसल ही हमारी रोज़ी रोटी है.
धरती मैया को कुछ और ही मंज़ूर था!
शायद वो इस बार हमारी जीवठता की कठिन परीक्षा लेना चाहती है.
कल से ही हम सब बिन बिजली के हैं. ऐसा लगता है मानो रोशनी भी हम लोगों से जी चुराना चाहती है.
कल आसमान में जब मुख्यमंत्री का हेलीकाप्टर उड़ते गाँववालों ने देखा तो मेरे गांव के श्रवण मुर्मू ने कहा कि सरकार हमें और हमारी खेतों को शायद ऊपर से ही देख रही है!
इतना कहने के बाद वो फफक फफक कर रोने लगा.

'मुआवज़े का दर्द किसान ही जाने'

दरअसल मुआवज़ा जैसे सरकारी जुमले से हम किसान आजिज़ आ चुके हैं. साल 2011 में जो मक्के की फसल बर्बाद हुई थी उसका मुआवजा मुझे 2013 में मिला.
ऐसे में मेरे ग्रामीण श्रवण का दर्द आप समझ सकते हैं.
हम ऋण लेकर किसानी करते हैं. मक्का से हमारी उम्मीद थी. सोचा था फ़सल बेचकर बैंक का बकाया चुकता करेंगे.
बाबूजी के बेहतर इलाज के लिए बाहर जाएंगे, लेकिन उम्मीदें बस उम्मीदें ही रह गईं!
लीची और आम की फ़सल भी इस तूफ़ान में हमसे दूर हो गयी. आम के टिकोलों से लदे गाछ टूट गए, ऐसे जैसे बच्चों के खिलौने टूटते हैं.
बहुत कुछ गवां गए हम सब. किसानी का दर्द शायद दुनिया का सबसे ला-इलाज दर्द होता है. कोई दर्द निवारक दवा काम नहीं करती है.
गाँव की उन बस्तियों को हमने ताश की पत्तियों की तरह उड़ते देखा जहां घर टीन और चदरे से बने थे. घर के सामने फ़सल रखे थे, तैयार करने के लिए....पानी और हवा के तांडव ने उसे भी अपने पेट में रख लिया.

सच होती पुरानी कहावतें

अब हम जाएँ तो कहाँ जाएँ!
पूर्णिया ज़िले के लिये कभी एक कहावत प्रचलित थी - "जहर नै खाऊ, माहुर नै खाऊ, मारबाक होये त पूर्णिया आऊ."
मंगल की रात आये तूफ़ान ने हमें इस कहावत पर सोचने पर मजबूर कर दिया.
गाँव के युवा तबक़े के लोग कह रहे हैं कि वे अब निकल जाएंगे मजदूरी करने दिल्ली-पंजाब.
मज़दूरी के सिवा उनके पास अब कोई चारा नहीं बचा. नियति पर विश्वास करने वाले हम जैसे किसान अब बस यही कह सकते हैं - सबहि नचावत राम गोसाईं.
गाँव के 20-25 साल के लड़कों की बातें सुनने के बाद मैं अपने उजड़े खेत के सामने खड़ा ख़ुद से पूछ रहा हूँ कि कहाँ जाऊं मैं?
मुझे कबीर याद आ रहे हैं, उनकी एक वाणी है - कहाँ से आये हो कहाँ जाओगे?
पहले गेहूं और अब मक्का, आम और लीची गवांने के बाद मैं यही सब सोच रहा हूँ लेकिन इस उम्मीद के साथ कि उजाला तो होगा!
धरती मैया हमारी पुकार तो सुनेगी एक दिन .. उजड़े खेतों में अगली बार मक्का भी लहलहाएगा और गेहूं भी! आम भी होगा और लीची भी!
किसानी करते हुए हमने यही जीवठता सीखी है अपने गाँव से.
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