1969 की बात है, एक बड़े मराठी लेखक अनिल अवचट पूर्णिया आए थे तब उन्होंने 'पूर्णिया' के नाम से एक यात्रा वृतांत लिखा था। किताब मराठी में है और जल्द ही यह हिंदी में भी उपलब्ध होगी।
आप पूछ सकते हैं कि आखिर 50 साल बाद किताब का जिक्र करने के पीछे वजह क्या है? दरअसल इसके पीछे एक बड़ी रोचक कहानी है। दो दिन पहले की बात है, स्व.अनिल अवचट जी की बेटी यशोदा वाकांकर जी पूर्णिया आईं थी, अपने पिता की लिखी किताब की कर्मभूमि देखने!
कुछ दिन पहले ही उनसे परिचय हुआ था। हालांकि किताब के बारे Pushya Mitra भैया ने कुछ साल पहले विस्तार से बताया था। बाद में चनका रेसीडेंसी पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार Sunil Tambe
सुनील तांबे जी ने भी इस किताब के बारे में बताया था।
लेकिन सच कहूँ इसके बारे में सोचा नहीं था कि कोई बेटी यूँ ही खोजती- खंगालती पहुँच जायेगी अपने पिता की लिखी किताब की कर्म भूमि देखने! मुझे यशोदा जी की बातें सुनकर फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास ' परती परिकथा ' की याद आ गई।
" कोसी मैया बेतहासा भागी जा रही है, भागी जा रही है। रास्ते में नदियों को, धाराओं को छोटे बड़े नालों को, बालू से भरकर पार होती, फिर उलटकर बबूल, झरबेड़, ख़ैर, साँहुड़, पनियाला, तीनकटिया आदि कँटीले कुकाठों से घाट-बाट बंद करती छिनमताही भागी जा रही है..."
एक बेटी, अपने पिता के लिखे किताब के बहाने पहुँच जाती है, उस माटी को समझने बुझने, जहाँ उसका अपना कोई नहीं है! यह घटना मुझे निजी तौर पर रोमांचित करती है।
यशोदा जी से मिलकर महसूस हुआ कि हम सब माटी के ही लोग हैं! वह पिता के शब्दों को पूर्णिया की माटी में ढूंढ रहीं थी और मैं बाबूजी और रेणु के बहाने पूर्णिया को! दरअसल हम सब निमित्त मात्र ही हैं!
यशोदा जी अपनी सहेली जानी मानी पेंटर व लेखिका अदिती हर्डिकर के साथ पूर्णिया पहुंची थी।
यशोदा जी खुद लेखिका हैं। उन्होंने एपिलेप्सी जैसे कठिन विषय पर किताब लिखी है। वह फिलहाल पुणे स्थित दीनानाथ मंगेशकर हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर के न्यूरोलॉजी विभाग में काम कर रही हैं।
1 comment:
Thank you so much for writing so wonderfully!! :-)
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