Wednesday, May 06, 2020

विषयांतर


आज से छह वर्ष पहले अपने गांव में बच्चों के लिए फ़िल्म फेस्टिवल का आयोजन किया था, यूनिसेफ के सहयोग से। 400 से अधिक संख्या में बच्चे इकट्ठा हुए थे, अद्भुत अनुभव मिला और सबसे बड़ी बात की खुशी मिली। लेकिन उस आयोजन के जरिये एक अलग ही तरह का अनुभव हासिल हुआ, जिसे हम एक तरह का रोग भी कह सकते हैं। पिछले छह साल में इस रोग को बहुत करीब से देखने का मौका मिल रहा है।
यह रोग दरअसल काम करते हुए अपने काम का मीडिया में छपने-छापने से संबंधित है। अब जब मीडिया का प्रसार गाम-घर, गली-मोहल्ले तक हो चुका है। अखबारों के संस्करण शहरों के गली-चौराहे-बाजार की खबरों के व्याकरण में उलझ चुका है, ऐसे वक्त में खबरों में बने रहने की प्यास बड़े सुनियोजित ढंग से बढ़ाई जा रही है। यह एक ऐसी प्यास है जो एक बार लग गई तो कभी बुझती नहीं है।
हम जो कुछ कर रहे हैं, उसे छपाने-दिखाने-सुनाने की लिप्सा बड़ी खतरनाक चीज होती है औऱ जब आपका काम छप जाता है तो वह और भी खतरनाक तरीक़े से एक रोग की तरह आपके भीतर समा जाता है।
हमने शुरुआत में गांव के जिस फ़िल्म महोत्सव की बात की, वहां भी कार्यक्रम को स्वयं अखबार तक पहुंचाने का ज्ञान मतलब छपने का सुख हासिल करने का ज्ञान किसी ने दिया था और जब हमने मना किया तो मामला ही बिगड़ गया। खैर, पांच साल तक तनख्वाह वाली पत्रकारिता करने की वजह से ढेर सारे पत्रकार मित्र देश भर में हैं जिनकी वजह से उस बिगड़े मामले की गंदगी को छूने से बच गया लेकिन अनुभव यही रहा कि काम पर ही केवल भरोसा किया जाना चाहिए, काम करते हुए खुद ही खबरों में बने रहने की बीमारी बड़ी तेजी से संक्रामक रोग की तरह फैल रही है।
जो भी अच्छा या कुछ अलग समाज में हो रहा है, उस पर पर मीडिया की नजर जाए, यह अच्छी बात है लेकिन खुद ही मीडिया की आंख बन जाना 'डाइबिटीज' है। आप इसे आत्ममुग्धता की बीमारी कह सकते हैं। यह आत्ममुग्धता बड़ी खतरनाक चीज होती है।   
हमलोग जो छोटे स्तर पर किसानी करते हैं, तो इस बात की पूरी कोशिश करते हैं कि मंडी के लोग खुद आकर अनाज या कोई भी कृषि उत्पाद खरीद लें। हम व्यापारी को पकड़ कर नहीं लाते, वे खुद ही आते हैं और धान, मक्का आदि खलिहान से उठाकर ले जाते हैं। कहने का मतलब साफ है , यदि हम ऐसा काम कर रहे हैं, जिसके बारे में बात हनी चाहिए तो बात होगी ही, इसके लिए हमें सेमिनार नहीं करन होगा।
खेती करते हुए तो हमने यही सीखा है। मीडिया में छपने-दिखने का काम मीडियाकर्मियों का है, हम खुद छप जाने की प्रक्रिया से बचे रहें, दरअसल यह काम किसी और का है।


1 comment:

mahendra mishra said...

बहुत ही सही ...