जब हर कोई चुनाव की बात कर रहा है, ऐसे वक्त में मरुआ पर बातचीत करने का मन कर रहा है। वही मरुआ, जिसके काले रंग के आंटा के बारे में पहले लोग सुनना भी नहीं चाहते थे।
इस अनाज को 10-15 साल पहले तक लोगबाग पूछते भी नहीं थे लेकिन इसने गजब तरीके से घर वापसी की है। इस वापसी के मायने को समझने की जरूरत है।
कभी मरुआ की खेती के बारे में भी लोग सोच नहीं सकते थे क्योकि इसका कोई मूल्य ही नहीं होता था। ऐसे में अचानक ऐसा क्या हुआ कि किसानी कर रहे लोग खेती के लिए मरुआ का बीज खोजने लगे हैं।
बिहार में तो मरुआ को लेकर अभी भी नजरिया पुराना ही है लेकिन उत्तराखंड में तो मरुआ का बहुत महत्व है। दरअसल मरुआ पोषक तत्वों का गढ़ है। आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि उत्तराखण्ड से मरुआ जापान जाता है और वहां इससे बेबी फ़ूड तैयार होता है। ऐसे में बिहार झारखंड और अन्य राज्यों के किसानों को मरुआ को लेकर नए सिरे से सोचने की जरूरत है।
ये तो हुई विदेश के बाजार की बात। अब जानिये रोग के लिए मरुआ का महामात्य । दरसअल जिस तेजी से हम सब मधुमेह के जाल में फंस रहे हैं ऐसे में मरुआ के महत्व को समझना होगा।
मरुआ का सेवन मधुमेह रोग में रामबाण साबित होता है। डाक्टर इसका सेवन करने के लिए कहते हैं। इसका बिस्कुट बनने लगा है। तो ऐसे में बिहार के किसान इस अनाज में हाथ क्यों नहीं आजमा रहे हैं, सुनकर अचरज होता है।
यदि आप पोखर बना रहे हैं तो उसके मेड़ पर आप मरुआ उपजा सकते हैं। मरुआ जमीन को समतल भी करता है खासकर बलुआही जमीन को। यह कम दिन का फसल है लेकिन समस्या बीज की उपलब्धता को लेकर है। बीज नहीं मिलने के कारण उन किसानों को दिक्कत हो रही है जो इसकी खेती के लिए मन बना चुके हैं।
जिस फसल को हम सब अबतक पूछ नहीं रहे थे उसक कितना बड़ा बाजार बन गया है।
दरअसल जीवन की तरह ही फसलों का अपना चक्र होता है। फसल भी अपने जीवन में उतार चढ़ाव देखता है। जिस अनाज को आप काला या दबा कुचला मानकर पूछते नहीं थे उसपर आज आपको सोचना पड़ रहा है। यह जीवन के उस चक्र की तरह है जिसमें कहा जाता है कि सब दिन होत न एक समाना .... मतलब हर का दिन आता है।
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