बीच दोपहर में फेसबुक मैसेज बॉक्स में एक संदेश गिरता है, " मैं संतोष, पहचाना क्या? " मैंने बिना लाग-लपेट के ‘नहीं’ लिख दिया लेकिन मुझसे रहा न गया और तत्काल संतोष नाम के इस फ़ेसबुकिया मेहमान के एकांउट को खँगालने लगा। फिर पता चलता है कि यह तो संतोष विश्वास है अपने गांव का। संतोष लुधियाना के समीप एक गाँव में किसी बड़े किसान के यहाँ काम करता है। वह दस साल की उम्र में ही गाँव से निकल गया था। उसने स्कूली पढ़ाई नहीं की है। ऐसे में जब देवनागरी में उसका संदेश पढ़ने को मिला तो मैं सोचने लगा कि मोबाईल कितना कुछ नया कर रहा है। इस वेब संसार ने स्मार्टफ़ोन के ज़रिए दूरियों को पाटने की ख़ूब कोशिश की है।
सच कहूं तो मुझे इंटरनेट की बहुयामी दुनिया का सबसे रोचक अध्याय मोबाइल लगता है। दरअसल अब गाँव-घर में भी बड़ी संख्या में लोग मोबाइल के जरिए इंटरनेट की दुनिया में रमे हुए हैं। कम मूल्य के स्मार्टफ़ोन ने सारी दूरियाँ पाट दी है।
यदि आप गाँव के समीप के बाज़ारों से गुज़रेंगे तो मोबाईल सेवा देने वाली कम्पनियों के बड़े बड़े होर्डिंग देखेंगे। ये होर्डिंग सारी कहानी बता देती है। मोबाईल रिचार्ज के दुकान पर इंटरनेट प्लान का पोस्टर चस्पा मिलता है। युवा वर्ग 2 जी, 3 जी की माला जपते दिख जाएँगे।
ग्रामीण इलाक़ों को इंटरनेट-मोबाइलमय बनता देख मन ख़ुश होता है लेकिन इन सबके साथ इंटरनेट के जाल को भी समझने की जरुरत है। मेरे संतोष की कहानी ‘मोबाइल-इंटरनेट संगम’ से ही शुरु होती है। वह मोबाइल पर प्रयोग किए जाने वाले ब्राउजरों से वाकिफ है। उसे पता है कि गूगल क्रोम के अपग्रेडेड वर्जन से मोबाइल पर काफी तेजी से ब्राउज किया जा सकता है। पंजाब में रहते हुए इसी अंदाज में वह धान के उन्नत बीजों के बारे में भी मुझे बताने लगता है। उसे व्हाटसअप की महिमा के बारे में भी पता है।
इस निरक्षर युवक को ‘मोबाइल-इंटरनेट संगम’ ने दौड़ती-भागती आगे बढ़ती दुनिया से दो हाथ करना सीखाया है। अक्षर ज्ञान उसे मोबाईल ने ही सिखाया। इसका मतलब यह हुआ कि मोबाईल ही उसका गुरू है।
पिछले महीने पूर्णिया से 30 किलोमीटर दूर एक गांव जाना हुआ, भगैत सुनने। भगैत के मूलगैन (मूलगायक) अवधबिहारी जी की आवाज के जादू ने मन को मोह लिया, अफसोस मैं रिकार्ड नहीं कर सका। जाते वक्त मैंने अवधबिहारी जी से कहा कि क्या आपकी कोई तस्वीर मिल सकती है? उनका जवाब मुझे काफी रोचक लगा।
अवधबिहारी जी की उम्र 60 के आसपास होगी। गठीला बदन, स्वस्थ और तेजर्रार। उन्हें देखकर मुझे अपने बढ़े वजन और निकले पेट पर शर्म आ रही थी। उन्होंने मैथिली में कहा- "अहां क मोबाइल में व्हाटसअप अछि कि? हमर मोबाइल से अहां क मोबाइल में फोटू पहुंच जाएत। हमर पोता क अबै छै इ सब। " (आपके मोबाईल में व्हाटसअप है? मेरे मोबाईल से आपके मोबाईल में फ़ोटो चला जाएगा। मेरे पोते को यह सब करने आता है। )
मुझे अभी भी अवधबिहार जी का कहने का अंदाज याद है। मोबाईल और इंटरनेट ने लोगों के भीतर विश्वास भी पैदा किया है। फ़िलहाल यह सब लिखते हुए मुझे
मैला आंचल में रेडियो का प्रसंग याद आ रहा है। रेडियो का प्रसंग उस मेरीगंज की कहानी है जहां विज्ञान,संचार और तकनीक में भी किंवदंतियां और लोककथाएं जगह पा लेती है। विज्ञान आधारित वस्तुएं यहीं आकर अभिशाप के बजाय समाज का एक जीता-जागता चरित्र बनने लग जाता है और हमारा उससे खास किस्म का लगाव भी। देखिए न मोबाईल को इंटरनेट से जोड़कर जब भी कुछ लिखता हूं तो मन करता है कि यदि रेणु होते तो उनसे विनती करता, " बाबा, मोबाइल युग का मैला आंचल लिखिए न !"
सच कहूं तो मुझे इंटरनेट की बहुयामी दुनिया का सबसे रोचक अध्याय मोबाइल लगता है। दरअसल अब गाँव-घर में भी बड़ी संख्या में लोग मोबाइल के जरिए इंटरनेट की दुनिया में रमे हुए हैं। कम मूल्य के स्मार्टफ़ोन ने सारी दूरियाँ पाट दी है।
यदि आप गाँव के समीप के बाज़ारों से गुज़रेंगे तो मोबाईल सेवा देने वाली कम्पनियों के बड़े बड़े होर्डिंग देखेंगे। ये होर्डिंग सारी कहानी बता देती है। मोबाईल रिचार्ज के दुकान पर इंटरनेट प्लान का पोस्टर चस्पा मिलता है। युवा वर्ग 2 जी, 3 जी की माला जपते दिख जाएँगे।
ग्रामीण इलाक़ों को इंटरनेट-मोबाइलमय बनता देख मन ख़ुश होता है लेकिन इन सबके साथ इंटरनेट के जाल को भी समझने की जरुरत है। मेरे संतोष की कहानी ‘मोबाइल-इंटरनेट संगम’ से ही शुरु होती है। वह मोबाइल पर प्रयोग किए जाने वाले ब्राउजरों से वाकिफ है। उसे पता है कि गूगल क्रोम के अपग्रेडेड वर्जन से मोबाइल पर काफी तेजी से ब्राउज किया जा सकता है। पंजाब में रहते हुए इसी अंदाज में वह धान के उन्नत बीजों के बारे में भी मुझे बताने लगता है। उसे व्हाटसअप की महिमा के बारे में भी पता है।
इस निरक्षर युवक को ‘मोबाइल-इंटरनेट संगम’ ने दौड़ती-भागती आगे बढ़ती दुनिया से दो हाथ करना सीखाया है। अक्षर ज्ञान उसे मोबाईल ने ही सिखाया। इसका मतलब यह हुआ कि मोबाईल ही उसका गुरू है।
पिछले महीने पूर्णिया से 30 किलोमीटर दूर एक गांव जाना हुआ, भगैत सुनने। भगैत के मूलगैन (मूलगायक) अवधबिहारी जी की आवाज के जादू ने मन को मोह लिया, अफसोस मैं रिकार्ड नहीं कर सका। जाते वक्त मैंने अवधबिहारी जी से कहा कि क्या आपकी कोई तस्वीर मिल सकती है? उनका जवाब मुझे काफी रोचक लगा।
अवधबिहारी जी की उम्र 60 के आसपास होगी। गठीला बदन, स्वस्थ और तेजर्रार। उन्हें देखकर मुझे अपने बढ़े वजन और निकले पेट पर शर्म आ रही थी। उन्होंने मैथिली में कहा- "अहां क मोबाइल में व्हाटसअप अछि कि? हमर मोबाइल से अहां क मोबाइल में फोटू पहुंच जाएत। हमर पोता क अबै छै इ सब। " (आपके मोबाईल में व्हाटसअप है? मेरे मोबाईल से आपके मोबाईल में फ़ोटो चला जाएगा। मेरे पोते को यह सब करने आता है। )
मुझे अभी भी अवधबिहार जी का कहने का अंदाज याद है। मोबाईल और इंटरनेट ने लोगों के भीतर विश्वास भी पैदा किया है। फ़िलहाल यह सब लिखते हुए मुझे
मैला आंचल में रेडियो का प्रसंग याद आ रहा है। रेडियो का प्रसंग उस मेरीगंज की कहानी है जहां विज्ञान,संचार और तकनीक में भी किंवदंतियां और लोककथाएं जगह पा लेती है। विज्ञान आधारित वस्तुएं यहीं आकर अभिशाप के बजाय समाज का एक जीता-जागता चरित्र बनने लग जाता है और हमारा उससे खास किस्म का लगाव भी। देखिए न मोबाईल को इंटरनेट से जोड़कर जब भी कुछ लिखता हूं तो मन करता है कि यदि रेणु होते तो उनसे विनती करता, " बाबा, मोबाइल युग का मैला आंचल लिखिए न !"
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