फणीश्वर नाथ रेणु की वजह से मुझे फ़ारबिसगंज से लगाव है। दो दिन पहले की बात है, न्यूयार्क यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर रुचिरा गुप्ता के संग फ़ारबिसगंज घूम रहा था। रूचिरा जी फ़ारबिसगंज की ही हैं। दोपहर में उन्होंने कहा , चलिए आज आपको फ़ोर्ब्स साब की कोठी दिखाते हैं।
दरअसल अररिया ज़िला का फारबिसगंज कभी सुलतानपुर इस्टेट के नाम से जाना जाता था. 1859 में सुलतानपुर के मीर साहब की ज़मींदारी को एक अंग्रेज़ ‘सर अलेक्जेंडर फोर्ब्स’ ने ख़रीद लिया.
1890 में अलेक्ज़ेन्डर फोर्ब्स और उनकी पत्नी डायना की मृत्यु मलेरिया से हो गयी. तब आर्थर हेनरी फ़ोर्ब्स ने पिता की मृत्यु के बाद शासन संभाला और इसका नाम सुलतानपुर से बदलकर ‘फोर्बेस गंज’ रख दिया. लेकिन समय बदला और फ़ोर्ब्स परिवार ने सुलतानपुर इस्टेट को देश के मशहूर व्यवसायिक घराना जेके सिंघानिया के हाथों बेच दिया क्योंकि उस वक़्त यहाँ जूट की खेती बहुत होती थी।
पहले अंग्रेज़ यहाँ के ज़मींदार थे। कहते हैं कि फ़ोर्ब्स को किसानी का शौक़ था। इसी शौक़ की वजह से उसने सुलतानपुर को चुना और जमकर खेती की। एक सुंदर सा घर बनाया। घर के आगे एक बड़ा सा तालाब, घर के पूरब और पश्चिम में दो तोप, जिसका चबूतरा अभी भी है। इसके अलावा बड़ा सा गराज। कुल मिलाकर एक सुंदर सी कोठी.
फ़ोर्ब्स साब की कोठी में जो लोग अब रहते हैं, हमने उनसे भी बात की। पता चला कुछ साल पहले तक फ़ोर्ब्स के पोते और नाती यहाँ आते थे, अपने दादा-नाना के घर देखने, जिसमें एक का नाम एंड्रिल फ़ोर्ब्स था। वह लंदन में कहीं शिक्षक थे।
आज फ़ोर्ब्स साब भले न हो लेकिन उनकी कोठी फ़ारबिसगंज में ख़ुशहाल है और सबसे महत्वपूर्ण कोठी के सामने का तालाब ज़िंदा है, पानी है वह भी साफ़। इस तालाब को 'सुलतान पोखर' कहा जाता है। आज यह पोखर 'फ़ोर्ब्स साब की कोठी ' की तरह ही फ़ारबिसगंज की पहचान है।
देश के छोटे शहरों और क़स्बों को यदि आप खंगालेंगे तो ढ़ेर सारी कहानी मिलेगी। यह लिखते हुए मुझे रवीश कुमार के ब्लॉग क़स्बा का टैगलाइन याद आ जाता है- 'शौक़े दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर'
2 comments:
गिरीन्द्र जी आपकी एलेग्जेंडर फोर्ब्स की कोठी के विषय में लिखा यह लेख अत्यंत ख़ूबसूरत व लगभग यात्रावृतांत की तरह ही है.....ऐसे लेख को पढ़ने की चाह समस्त पाठकों को होती है....ऐसी ही रचनाओं को आप शब्दनगरी पर भी प्रकाशित कर सकतें हैं....
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