Friday, July 10, 2015

रेणु सिनेमा के पास नहीं गये, सिनेमा उनके पास आया : बासु भट्टाचार्य

सिनेमा में प्रवेश करने की इच्छा बड़े बड़े लेखकों की रही है। लेकिन रेणु के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण बात यह है कि वह खुद सिनेमा में नहीं आये , स्वयं सिनेमा उनके पास आया।

उनकी कहानी तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम मोहन राकेश द्वारा सम्पादित "पांच लंबी कहानियाँ" में छपी थी। मेरे एक दोस्त ने उनका अनुवाद बंगला में करने की सलाह दी।

तब मुझे विमल राय प्रोडक्शन छोड़े थोड़े ही दिन हुए थे और मैं स्वतंत्र रूप से कोई बहुत महत्वपूर्ण कहानी लेकर फ़िल्म बनाना चाह रहा था। मेरे दिमाग मवन शरत बाबू की कहानी 'अभागिन स्वर' बैठी हुई थी जिस पर गंभीरता से फ़िल्म बनाने की सोच रहा था।

मारे गए गुलफाम पढकर इरादा बदल दिया और तय किया कि पहले इसी पर जोर आजमऊं। मैं शैलेन्द्र के पास गया कि मेरे पास एक कहानी है जिस पर फ़िल्म बनाने के लिए पैसा दीजिये। शैलेन्द्र ने खुद कहानी पढ़ने की इच्छा जताई और कहा कि पसंद आ गयी तो मैं पैसा दूंगा। शैलेन्द्र को लगा कि मैं कोई क्लिष्ट विषय के चक्कर में पड़ गया हूँ। इसलिए उन्होंने अपने सामने मुझसे कहानी सुनी। मैंने कहानी पर आधारित फ़िल्म की पूरी क्राफ्ट जो दिमाग में बना ली थी, उन्हें सुना दी।

शैलेन्द्र राजी हो गए और तीसरी कसम को परदे पर लाने का निर्णय पक्का हो गया। तब तक मैं रेणु को व्यक्तिगत रूप से जानता नहीं  था। लेकिन जब मिला तो लगा कि इस आदमी को बहुत पहले से जानता हूँ।

मैं वी.टी. स्टेशन पर उन्हें लेने गया। रेणु ट्रेन से उतरे तो मुझे देखते ही बंगला में बोले-"नमोस्कर बासु बाबू" । मैं चौंक गया और पुछा कि उन्होंने मुझे कैसे पहचाना, तो रेणु ने जवाब दिया-" मैंने आपको सपने में देखा था ...एक बंगाली बाबू धोती कुरता पहने.....।

सोचता हूँ तो उस दिन स्टेशन पर मैं कोई अकेला थोड़े था धोती कुरता पहने...

दरअसल रेणु एक विलक्षण व्यक्तित्व था। वह एक साथ टैगोर और शरत था। एक साथ आस्तिक और नास्तिक था। और हां,शिव की तरह एक साथ अच्छा और बुरा था

(रेणु संस्मरण और श्रद्धांजलि से। 1978)

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