देखिए फिर एक नया साल आ गया है और हम-आप इसके साथ कदम ताल करने लगे हैं। शायद यही है जिंदगी, जहां हम उम्मीद वाली धूप में चहकने की ख्वाहिश पाले रखते हैं। उधर, उम्मीदों के धूप-छांव के बीच आपका किसान सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पर उम्मीद के लिए लिखे जाने वाले शब्दों को देखने में जुटा है, दोस्तों के फेसबुक स्टेटस को पढ़ रहा है और टि्विट पीपुल्स की 140 शब्दों की कथाओं के तार पकड़ रहा है।
आभासी दुनिया में लोगों के स्टेटस पढते हुए लगता है कि जीवन में कितना कुछ सीखना अभी बांकी है। लोगबाग अपने अनुभवों को यहां उड़ेल रहे हैं तो कोई तस्वीरों और शुभकामना संदेशों के जरिए लोगों से जुड़ रहा है। 2015 के पहले दिन मुझे 2102 की एक जनवरी याद आ रही है, जब कुछ लोग एक से बढ़कर एक फेसबुक स्टेटस डाल रहे थे।
उन्हीं में से एक स्टेटस अपने प्रिय सदन झा का था, उन्होंने तब लिखा था- “ मुझे खाली डिब्बा हमेशा से मोहित करता रहा है..।“ आपके किसान को यह वाक्य तिलिस्म की तरह लगा, डीडी पर एक जमाने में दिखाए जाने वाले चंद्रकांता की याद आई, जहां अक्सर क्रूर सिंह यक्कू कहते हुए हथेली के जरिए एक डिब्बा बना देता था।
दरअसल हम उम्मीद कहीं भी देख लेते हैं, खाली कमरों में भी और मानुष से भरे कमरे में भी, जहां विचारों का अविरल प्रवाह हो रहा हो या फिर गाम की नहर, जिसमें बलूहाई पानी बह रही हो।2012 की पहली जनवरी को सदन झा ने अपने फेसबुक वाल आगे लिखा था कि खाली डिब्बा अच्छा लगने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें भरा हुआ डिब्बा अच्छा नहीं लगता है। वे कहते हैं- “ लेकिन खाली बर्तन में आप तमाम सपनों और हसरतों को संजो सकते हैं। नये साल की शुभकामनायें कुछ इसी तरह की हैं। फोन पर एक साथ भेजे गये संदेश, ईमेल और फेसबुक पर अन्य हजारों के साथ आये विशेज में अपनेपन की गर्माहट, तकनीकि के खेल और नये साल की कर्मकांड के बीच यह साल खाली केनवास सा सामने है… सपनों के रंग के इंतजार में, आपकी हसरतों का राह तकते. ।”
इस पूरी विचार प्रक्रिया को पढ़ते हुए यही खयाल आता है कि खाली डिब्बे में भर जाने की हिम्मत होती है। डिब्बे के ऊपर रंग भर दें तो और भी सुंदर। खालीपन से भारीपन की यात्रा, आहिस्ता आहिस्ता जारी रहती है, बस साल बदलता जाता है। जब सदन झा खाली केनवास की बात करते हैं तब जवाहर लाल यूनीवर्सिटी के लाल दीवारों की याद आती है, जहां हाथों से लिखी बातें मन के कमरे में पहुंच जाती थी। मुझे फेसबुक के स्टेटस उम्मीद वाली धूप ही लगती है और जिस चीज से मैं इस धूप का आनंद उठाता है वह सचमुच में एक खाली डिब्बा ही हैं, जिसे जाने कब से भरता आ रहा हूं।
2012 की पहली जनवरी को अपने जे सुशील यानि सुशील झा का स्टेटस पढ़ने को मिलता है। वे लिखते हैं- “ साल बदले तो बदले, ईमान न बदले।“ सच कहिए तो इसे पढ़कर मैं आज भी एक पल के लिए ठहर जाता हूं।
मुझे आज सन 2015 की पहली जनवरी को सुशील झा के स्टेटस के बहाने सदन झा के खाली डिब्बे में बदलते साल की अनवरत कथा के बीच ‘ईमान’ नाम का एक पात्र दिखने लगा है।
आभासी दुनिया में लोगों के स्टेटस पढते हुए लगता है कि जीवन में कितना कुछ सीखना अभी बांकी है। लोगबाग अपने अनुभवों को यहां उड़ेल रहे हैं तो कोई तस्वीरों और शुभकामना संदेशों के जरिए लोगों से जुड़ रहा है। 2015 के पहले दिन मुझे 2102 की एक जनवरी याद आ रही है, जब कुछ लोग एक से बढ़कर एक फेसबुक स्टेटस डाल रहे थे।
उन्हीं में से एक स्टेटस अपने प्रिय सदन झा का था, उन्होंने तब लिखा था- “ मुझे खाली डिब्बा हमेशा से मोहित करता रहा है..।“ आपके किसान को यह वाक्य तिलिस्म की तरह लगा, डीडी पर एक जमाने में दिखाए जाने वाले चंद्रकांता की याद आई, जहां अक्सर क्रूर सिंह यक्कू कहते हुए हथेली के जरिए एक डिब्बा बना देता था।
दरअसल हम उम्मीद कहीं भी देख लेते हैं, खाली कमरों में भी और मानुष से भरे कमरे में भी, जहां विचारों का अविरल प्रवाह हो रहा हो या फिर गाम की नहर, जिसमें बलूहाई पानी बह रही हो।2012 की पहली जनवरी को सदन झा ने अपने फेसबुक वाल आगे लिखा था कि खाली डिब्बा अच्छा लगने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें भरा हुआ डिब्बा अच्छा नहीं लगता है। वे कहते हैं- “ लेकिन खाली बर्तन में आप तमाम सपनों और हसरतों को संजो सकते हैं। नये साल की शुभकामनायें कुछ इसी तरह की हैं। फोन पर एक साथ भेजे गये संदेश, ईमेल और फेसबुक पर अन्य हजारों के साथ आये विशेज में अपनेपन की गर्माहट, तकनीकि के खेल और नये साल की कर्मकांड के बीच यह साल खाली केनवास सा सामने है… सपनों के रंग के इंतजार में, आपकी हसरतों का राह तकते. ।”
इस पूरी विचार प्रक्रिया को पढ़ते हुए यही खयाल आता है कि खाली डिब्बे में भर जाने की हिम्मत होती है। डिब्बे के ऊपर रंग भर दें तो और भी सुंदर। खालीपन से भारीपन की यात्रा, आहिस्ता आहिस्ता जारी रहती है, बस साल बदलता जाता है। जब सदन झा खाली केनवास की बात करते हैं तब जवाहर लाल यूनीवर्सिटी के लाल दीवारों की याद आती है, जहां हाथों से लिखी बातें मन के कमरे में पहुंच जाती थी। मुझे फेसबुक के स्टेटस उम्मीद वाली धूप ही लगती है और जिस चीज से मैं इस धूप का आनंद उठाता है वह सचमुच में एक खाली डिब्बा ही हैं, जिसे जाने कब से भरता आ रहा हूं।
2012 की पहली जनवरी को अपने जे सुशील यानि सुशील झा का स्टेटस पढ़ने को मिलता है। वे लिखते हैं- “ साल बदले तो बदले, ईमान न बदले।“ सच कहिए तो इसे पढ़कर मैं आज भी एक पल के लिए ठहर जाता हूं।
मुझे आज सन 2015 की पहली जनवरी को सुशील झा के स्टेटस के बहाने सदन झा के खाली डिब्बे में बदलते साल की अनवरत कथा के बीच ‘ईमान’ नाम का एक पात्र दिखने लगा है।
मैं फिलहाल अपने प्रिय फणीश्वर नाथ रेणु के पात्र भिम्मल मामा को याद करने लगा हूं। वही भिम्मल मामा जिन्हें बार-बार दौरा पड़ता है लेकिन इसके बावजूद उनका ईमान नहीं डोलता है..। वहीं बावनदास भी याद आ रहे हैं, जिन्होंने केवल दो डग में इंसानियत को नाप लिया था।
जे सुशील भाई का 2012 का स्टेटस इन्हीं बातों को याद दिलाता रहता है। सच पूछिए तो भरम से परे दुनिया को देखने की ख्वाहिशों को पालने की इच्छा बढ़ने लगी है। खैर, 2015 में आप उम्मीदों के धूप सेकते रहिए, खाली डिब्बे को भरते रहिए साथ ही ईमान को बचाए रखिए। आलू और मक्कका की खेती करते हुए मैं मुखौटा उतारना अब जान गया हूं। सच पूछिए तो अब शहरी मुखौटा उतार चुका हूं । मैं अब रेणु की ही वाणी में चिल्ला कर कह सकता हूं - नए साल में 'मुखौटा' उतारकर ताजा हवा फेफड़ों में भरें ...। और हां, ईमान जरुर बचाए रखें :)
नबका साल जिंदाबाद !
2 comments:
आपके संदेश के साथ ही सदनजी की खाली डिब्बा और सुशीलजी का ईमान बनाए रखने का संदेश भी मिला.
वास्तविक जीवन में शायद आप भी इससे इत्तेफाक रखते होंगे कि एक चेहरे के कई चेहरे होते हैं...फिर भी चेहरों को बदलते हुए भी ईमानदारी बरतने की कोशिश एक अलग आयाम है जिंदगानी का...
फिलहाल आप रेणुजी की भूमि पर रेणुजी के स्टाइल में अपने ग्राम्य-हवा में मुखौटा खोलकर फेफड़े में ताजगी भरिए..
और मेरे तरफ से ईमानदारी के साथ नये साल की शुभकामनाएँ स्वीकार कीजिए.
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