Sunday, January 09, 2011

रवीश आपने पर्दा गिराया नहीं उठाया है...

गिरा दो पर्दा कि दास्ताँ ख़ाली हो गई है

गिरा दो पर्दा कि ख़ूबसूरत उदास चेहरे ख़ला में तहलील हो गए हैं
-गुलजार

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011, चैनल एनडीटीवी इंडिया। कार्यक्रम रवीश की रिपोर्ट। भूख पर लगी धारा 144। मैं इसे रवीश की बेहतरीन रिपोर्टों में एक कहता हूं, इसी वजह से जब इस ‘देखी रिपोर्ट’ पर ‘लिखने’ जा रहा हूं तो गुलजार की इन दो पंक्तियों (शुरुआत में लिखी) का इस्तेमाल कर रहा हूं। मुझे रवीश की इस रिपोर्ट ने कई बिंदुओं पर सोचने को मजबूर कर दिया। शनिवार को मैं दिन भर इस रिपोर्ट के बारे में ही सोचता रहा। शुक्रवार को रपट देखने के तुरंत बाद जब रवीश को एसएमएस किया कि ‘आंखों में आंसू आ गए हैं’ तो उनका जवाब आया – ‘मुझे अभी तक समझ नहीं आ रहा कि ये क्या हालात हैं..........।‘

25 पैसे के लिए मजदूरी करती महिलाओं की कहानी जब रवीश बयां कर रहे थे, तब मैं जयपुरिया रजाई में लिपटा आंखों को नम कर रहा था। शरम आ रही थी, मैं महंगाई पर घडियाली आंसू बहा रहा था (क्योंकि मैं कुछ कर नहीं पा रहा था, सिवाय अफसोस जताने के)। रवीश दिल्ली की कहानी बयां कर रहे थे। रवीश के साथ सहबा फारुकी थीं, जो कहानी के भीतर कहानी की रेसे को अलग कर रही थीं। सच कहूं तो इसी रपट से जान सका कि कोई दो रुपये के लिए भी आठ घंटा काम कर सकता है। मैं तो हर छह महीने में अपनी सैलेरी में 000 बढ़ाने के लिए आठ घंटे काम करता हूं। उसमें भी तमाम सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट (सबसे अधिक ट्विटर) को खंगालने में और कॉफी पीने में वक्त गुजारता हूं।

हम उस मुल्क में रह रहे हैं जहां पचीस पैसे से लेकर एक रुपये सत्तर पैसे तक के लिए लोग मजदूरी कर रहे हैं और जब सत्तारूढ़ दल अपना राष्ट्रीय अधिवेशन करता है तो करोड़ों फूंक डालता है। मैं व्यक्तिगत तौर पर शहरों में काफी कुछ ढूंढ़ता रहता हूं लेकिन अफसोस दिल्ली की इस तस्वीर को इतनी नजदीकी से नहीं समझ सका। रवीश, मैं शर्मींदा हूं। रवीश, जब आप उस घर के बारे मे बता रहे थे, जहां किचन, बाथरुम, बेडरूम सब एक में ही था, तो मुझे अपने सोफे से चिढ़ आ रही थी। गोरखपुर की साजिदा के घर आप ले गए, जो खैनी के पाउच के लिए चूने को छोटी-छोटी डिबिय़ा में पैक करती हैं। उसके हाथों को देखकर आपको क्या हुआ होगा, मैं महसूस कर सकता हूं। लेकिन जब वह बताती हैं कि इसी चूने से उसेन घर को व्हाइट हाउस बना डाला तो जिंदगी के एक दूसरे हिस्से से भी नजदीक आया कि हर पल को यहां जी भर के जीयो...

मेरे यार-दोस्त बोलते हैं कि मैं कुछ ज्यादा ही इमोशनल हूं, अरे, मैं क्या करूं, अक्सर कई चीजें मुझे हैरान कर देती है और मैं बह जाता हूं। भूख पर लगी धारा 144 ने यही हाल किया। मुझे पता है इस पोस्ट को पढ़कर भी यार-दोस्त यही कहेंगे, लेकिन मैं मजबूर हूं...। रपट देखने के बाद लगा कि दिल्ली से अच्छा तो मेरा गांव हैं, जहां दिन भर की मजदूरी 90 रुपये मिलती है। मैं इसलिए गुलजार के शब्दों के पास जा रहा हूं और बुदबुदाता हूं कि गिरा दो पर्दा कि दास्तां खाली हो गई है...।

1 comment:

मनोज कुमार said...

स्थिति चिंतनीय है।