मुझे रास आता है नामों का संसार। संसार, जहां हम अपनी जरूरतों के सामानों की खरीदारी करते हैं। मैं बात दुकानों के नाम की कर रहा हूं। आहिस्ता-आहिस्ता अपनी गड्डी बढ़ाते हुए मैं बाजारों का रूख करता हूं। नजरों को दुकानों के बोर्ड पर टिकाए आगे बढ़ रहा हूं। शहर को समझने की ख्वाहिश में अक्सर मैं बाजारों की ओर बढ़ता हूं। रेडिमेड क्लॉथ से लेकर बुक स्टोर्स की कहानी गढ़ते नामों की दुनिया।
कभी-कभी लगता है कि क्यों न दुकानों के नामों पर शोध किया जाए..। सराय के इंडिपेंडेंट रिसर्च फेलोशिप के दौरान जब टेलीफोन बूथों पर काम कर रहा था, तो उस समय मैंने सैकड़ों नाम इकट्ठा किए थे। मिश्रा टेलीफोन बूथ, चांद बूथ, टॉक अड्डा....जैसे तमाम नाम मेरी डायरी में मौजूद हैं। शहर-दर-शहर घूमते हुए एक बार फिर मैं नाम की दुनिया में प्रवेश करता हूं। ये नाम शहर की संस्कृति से रूबरू कराती है। कानपुर के माल रोड (मूल नाम महात्मा गांधी मार्ग) पर ढेर सारे दुकान हैं। गीता प्रेस की दुकान पर निगाह टिकती है। बचपन का मानस रि-प्ले हो जाता है। याद आता है कि गीता प्रेस की दुकानों के नाम तो हर जगह एक ही जैसे हैं, वक्त बदलता गया पर इनके नाम में कोई बदलाव नहीं दिखा। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यदि सबसे अधिक बदलाव दिखे तो वे हैं प्रोविजनल स्टोर्स।
तथाकथित छोटे शहरों से लेकर महानगरों तक फैले प्रोविजनल स्टोर्स के नाम काफी तेजी से बदल रहे हैं। मेरे शहर पूर्णिया में भी यह बदलाव दिख रहा है। कभी जिसका नाम कुंदन स्टोर (किराने की दुकान) हुआ करता था, अब वह स्मॉल बाजार के नाम से जाना जाता है। घर की हर जरूरत को पूरा करने वाला यह दुकान देवनागरी से रोमन हो चुका है।
यही तस्वीर हर शहर में दिख रही है। चार हजार की आबादी वाले गांव में भी मिस्टर राइट (किराना, मोबाइल दुकान) पधार चुके हैं। मैं दुकानों के नामों को पढ़ता जा रहा हूं, शहर को देखता जा रहा हूं...
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