कानपुर में हमारे एक सहकर्मी के पिता की मौत ने मुझे झकझोर कर रख दिया है। पल में खुशी, पल में गम जैसे शब्दों को कॉपी में लिखने वाले मेरे जैसे कई लोगों को मृत्यु जैसी घटना कई चीजों पर सोचने को मजबूर करती है। कानपुर से सटे उन्नाव जिले के शुक्लागंज में रहने वाले मेरे दोस्त - सहकर्मी के पिता की मौत की खबर सुनने के बाद हम सभी रविवार सुबह उनके घर पहुंचे फिर गंगा घाट, जहां दोस्त के पिता पंचतत्व में समा गए। मौत शब्द सुनकर एक सिरहन सी होती है, जिसमें भय के साथ सच्चाई से भागने की भी गंध महसूस होती है। यह गंध मुझे शुक्लागंज के गंगाघाट पर भी लगी, यही गंध कमलेश्वर की मौत पर दिल्ली में और चाचा की मौत पर अपने गांव चनका में भी लगी थी। शवों को जलते देख और धुंए से मन मिचलने लगा था। दौड़ते-हांफते एक चापाकल के पास गया और चेहरे पर खूब पानी उड़ेला, ताकि सच्चाई से भाग सकूं। वैसे गंध से जितनी दूरी बनाओ वह उतना ही खदेड़ता है। खैर, आप सच्चाई से भाग नहीं सकते।
दोस्त के घर पहुंचने पर उनके पिता के शव को बस एक नजर देखा, वहां सभी लोग रो रहे थे, इसलिए मैं वहां से दूर हो गया। दरअसल आंसूओं, संवेदनाओं के फेर में मेरा मन बावड़ा हो जाता है। लोग रो रहे थे, हम सब भी चुप खड़े थे, लेकिन एक बच्चा वहां मुस्कुरा रहा था। सोचा कितना अच्छा है बच्चा होना, कितना अच्छा होता है सबकुछ से अंजान होना। तभी पांच-छह साल के एक और बच्चे पर नजर गई, उसका कुछ खो गया था- दो रुपये का सिक्का। वह विचलित लग रहा था, तबतक जबतक उसका खोया सिक्का उसे नहीं मिला। मिलने के बाद चेहरे पर मुस्कान की रेखा आरी-तिरछी भाग रही थी। उम्र के बढ़ने के साथ जीवन हमें बस यही सिखाता है- खोना और पाना। आज मेरे दोस्त ने पिता को खो दिया था और मैंने अपने दोस्त की खुशी। अभी जगजीत सिंह की गायी गजल याद आ रही- आंसू छलक-छलक के सताएंगे रात भर, मोती-मोती पलक-पलक में पिरोया करेंगे हम...याद में रोया करेंगे....जुदा हो गए हम..
3 comments:
मौत जटिल जरुर है लेकिन अंत नहीं. पश्चिम से आई आधुनिकता में जिसमे पढ़कर हम आगे बढ़ रहे हैं. वहाँ यह अंत है. लेकिन जिस परिवेश के बीच हम पले-बढें हैं वहाँ यह महज कायांतरण है. इस फर्क से हम सभी वाकिफ रहते हैं लेकिन केवल सोच के स्तर तक ही. भीतर से कायांतरण को महज दिल को बहलाने का जरिया समझ बैठते हैं. हम धीरे धीरे उस धाती को खोते जा रहे हैं जहाँ मौत अंत नहीं है, एक यात्रा की शुरुआत भर है.
पढ़ कर अच्छा लगा और थोड़ा डर भी,,,, मौत शब्द जो सुनाई दिया, जिंदगी की भागदौड़ में हम इतना व्यस्त रहते हैं कि जिंदगी के इस सच को ही भूल जाते हें, जबकि सच्चाई तो यह है कि हम सभी धीरे-धीरे उसी की ओर बढ़ रहे हैं, एक दिन यह रास्ता खत्म हो जाएगा और सब कुछ खत्म,,,,,
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