Monday, January 04, 2010

एक पैसा प्रति सेकेंड और लिफाफा



हम 2010 में हैं,  दोस्तों से फोन, ई-मेल, एसएमएस और तमाम सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट के जरिए नए साल की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान किया, लेकिन इस बीच ग्रिटिंग्स कार्ड को समेटे लिफाफे कहीं खो गए। याद कीजिए पुराने दिनों को जब नए साल में हम डाकिए का इंतजार किया करते थे। लाल-पीले-गुलाबी लिफाफों में डाक टिकट चिपकाए जब वह आता तो दूर बैठे लोगों की याद ताजा हो जाती थी।

हम स्कूल दिनों में हॉस्टल से घर भेजा करते थे ग्रिटिंग्स कार्ड। उसकी अपनी भाषा हुआ करती थी। हैप्पी न्यू ईयर कहने का अंदाज हुआ करता था। अब कागज के पन्नों में अपनी भावनाओं को रंगों में समेट कर दोस्तों-परिजनों को भेजा करते थे। मैं गत 8 -9 सालों से ऐसा नहीं कर रहा हूं, या कहूं आप भी नहीं कर रहे होंगे। इस बार तो एक पैसा प्रति सेकेंड ने तो उम्मीद की आशा को और भी कम कर दिया। मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर कंपनियां एक से बढकर एक ऑफर दे रही है जिससे डाक सेवा टक्कर नहीं ले सकेगी।


हमारे-आपके घर में आज भी ऐसी कई ग्रिटिंग्स होगी, जिसे हमने नववर्ष पर प्राप्त किया था। यदि कोई कार्ड आपके पास आज भी सुरक्षित है तो आप याद कीजिए उन पुरानी यादों को, उन अनुभवों को ...शायद आगे चल ये बातें फोटो एलबम की तरह हो जाएगी। उस वक्त आप कहेंगे कि फ़लां वर्ष में मेरे एक दोस्त ने मुझे यह कार्ड भेजा था...।

यह सच है कि इलेक्ट्रॉनिक युग में ईमेल- मोबाइल- ब्लैकबेरी एक सुविधाजनक साधन बनकर सामने आई है.. लेकिन इस बीच कागज के पन्नों पर उकेरे शुभकामना संदेशों को भी भूलना ठीक नहीं है। इस बार जब पहली जनवरी की सुबह आपने किसी को शुभकामना संदश भेजा था तो वह पलक झपकते ही आपके मित्र तक पहुँच गई होगी ..लेकिन डाक से कार्ड भेजने के लिए आप कम से कम पाँच दिन पहले उस मित्र- भाई-बहन-या अन्य रिश्तेदारों को याद करते थे..।

 जरा सोचिएगा और जगजीत सिंह की इस गजल को भी सुनिएगा- चिट्ठी न कोई संदेश..जाने कौन सा देश जहां तुम चले गए...। या फिर पंकज उधास की गजल- चिट्ठी आई है...वतन से चिट्ठी आई है...।

6 comments:

Sadan Jha said...

कागज,चिट्‍ठी,लिफाफा,पोस्‍टकार्ड, नव वर्ष की मंगलकामना वाले खत और उनपर सुंदर लिखावट से उकेरे गए मोती जैसे शब्‍द। जब पाती लिखी जाती तो जतन से सहेजी भी जाती। कहीं पानी से भींग ना जाए। रोशनाई तैयार की जाती, पहले करची कलम के नोक पैने किए जाते, फिर गोटी वाले श्‍याही को गरम पानी में भिंगोया जाता। जब कार्ड लिख लिया जाता तो किताब के पन्‍नों के बीच संभालकर रख लेते जब तलक वह लिफाफा लाल रंग के सरकारी डब्‍बे में ना गुम होता।
फिर धीरे धीरे लीड पेन आया, स्‍केच-पेन और हम लोग लिखना भुलने लगे। भावनाऔं का इंतजार खत्‍म होने लगा यह मैं नहीं कहुंगा, लेकिन अब वह लुत्‍फ नही जो दरभंगा के भारती पुस्‍तक केंद्र के बाहर सस्‍ते ग्रीटिंग कार्ड को मेहनत से छाँटते हुए हुआ करता था। पैसे हफ्‍तों पहले से जमा किए जाते थे और कार्ड को चुनने, उसपर लिखने और घर आए शुभकामनाऔं को सजाने का सिलसिला कम से कम पूरे जनबरी तो जरुर जारी रहता।
समय और भावना दोनो ही तेजी से भगते हैं।

मनोज कुमार said...

अच्छा आलेख।

rajesh utsahi said...

सही कहा गिरीन्‍द्र भाई आपने। मुझे भी याद है कि महीने भर पहले से दस पैसे वाले पोस्‍टकार्ड थोक में खरीदकर उन पर कोई कविता लिखकर भेजने की तैयारी करते थे। और यह केवल नववर्ष पर नहीं दिवाली,होली,ईद,क्रिसमस सब त्‍यौहारों पर होता था। आने वाले जवाब भी बहुत संभालकर रखते थे।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सही लिखा है। धन्यवाद।

विनीत कुमार said...

नए साल की ग्रिटिंग्स से रांची का पुरुलिया रोड पट जाता था तब। जैसे दीवाली में मिठाईयां और खिलौने की अस्थायी दूकानें सजा करती है,होली में रंगों की और रक्षाबंधन में राखियों के वैसे ही। रांची में क्रिसमस और नए साल का अलग ही रंग होता। उसी मैं देखा करता था कि ये वो मौका होता था जब कोई लौंडा सालभर से जमी अपनी भावना को इन लाल-गुलाबी लिफाफों में बंद करके लड़की के आगे धर देता। लेकिन मैंने कई बार लड़कियों को उन कार्डस को फाडकर लौंडे के मुंह पर फेकते देखा है। एक बार तो एक लड़की ने कार्ड फाडने के बजाय ऐसे ही फेंका दिया और चली गयी। लड़के में इतनी हिम्मत नहीं थी कि उठाए। उन दोनों के जाने पर मैंने उसे उठाया। देखा,लव यू के अलावे कुछ लिखा नहीं था। मैंने उस लव यू के आगे आइ लगाया और पीछे जीजू और टाटा भेज दिया। जीजाजी खुश हुए लेकिन डांटा भी कि इतने मंहगे कार्ड भेजने की जरुरत क्या थी? खाने-पीने और पढ़ने पर पैसे खर्च किया करो।
फोन करके उसी सेंट जेवियर्स में पढ़ रही अपनी भांजी से पूछा कि- स्वाति,अब भी वहां लड़कियां मुंह पर कार्ड फेंका करती है तो बोली- मामा,अब कहां? आपका जमाना गया। अब तो एख लड़की ने कहा- स्साले,एक कार्ड देने की तो औकात नहीं और चला है प्रपोज करने।..

मधुकर राजपूत said...

जब डाकिया नए साल के ग्रीटिंग्स लेकर आता था, एक अलग तरह की चहक होती थी। उन्हें खोलकर उनका आकलन किया जाता था। अच्छा है, ये वाला म्यूजिकल है। नया साल इवेंट होता था, किसी के अरमान पूरे करने का, तो किसी के लिए अधूरे प्यार को परवान चढ़ाने का। कार्ड से गैलरियां और सड़कें सभी पट जाती थीं। अब भी कुछ यादें बाकी हैं। पिताजी की अल्मारी में पुराने ग्रीटिंग्स की पुरानी पन्नी निकलते ही नए सिरे से सारे ग्रीटिंग्स नए लगन लगते हैं।